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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप यह आर्य अष्टांगिक मार्ग है-१. सम्यकदृष्टि, २. सम्यक्संकल्प, ३. सम्यक्वाणी, ४. सम्यक्कर्म, ५. सम्यक्आजीव, ६. सम्यक्व्यायाम, ७. सम्यक्स्मृति, ८. सम्यक् समाधि ।'
इसमें सबसे प्रथम मार्ग सम्यग्दृष्टि है । अतः हम कह सकते हैं कि इस मार्ग का प्रथम सोपान व आधार-शिला सम्यग्दृष्टि अथवा श्रद्धा है । सम्यग्दृष्टि और सम्यक् संकल्प को प्रज्ञा स्कन्ध में एवं सम्यक् वाणी, सम्यकर्म और सम्यक्आजीव को शील स्कन्ध में तथा सम्यकव्यायाम, सम्यकस्मृति और सम्यक्समाधि को समाधि स्कन्ध में समावेश किया है । सम्यक् दृष्टि ही सम्यक्संकल्प का कारण है। इसके अभाव में सम्यक्संकल्प संभव नहीं । प्रज्ञा स्कन्ध में समावेश करके. ज्ञान को इसमें अन्तर्निहित कर लिया है। हालांकि अष्टांगिक मार्ग में ज्ञान का स्वतंत्र स्थान नहीं है तथापि वह सम्यग्दृष्टि में ही समाहित है । हालांकि बौद्ध साधना के त्रिविध मार्ग-शील, समाधि और प्रज्ञा में ज्ञान स्वतंत्र भी बताया है। किंतु यहाँ तो सम्यग्दृष्टि में ही सन्निहित है । इस प्रकार बौद्ध आचार दर्शन में श्रद्धा का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । सुत्तनिपात में आलवक यज्ञ के प्रति बुद्ध स्वयं कहते हैं कि मनुष्य का श्रेष्ठधन श्रद्धा है । मनुष्य श्रद्धा से इस संसार रूपी बाढ़ को पार करता है । एवं निर्वाण की ओर ले जाने वाले अर्हतों के धर्म में श्रद्धा रखने वाला अप्रमत्त और विचक्षण पुरुप प्रज्ञा प्राप्त करता है ।
सयुत्त निकाय में कहा है कि श्रद्धा पुरुष का साथी है और प्रज्ञा उस पर नियंत्रण करती है । संसार में पुरुष का सबसे श्रेष्ठवित्त १. धम्मचक्कपवत्तन सुन, सं० नि०, महापरिनिब्बानसुत्त, दी० नि०,
महासतिपट्ठान सुत्त, दी. नि०, सम्मादिठि सुत्त, म० नि० ॥ २. आलवक सुन, सं० नि० १०-१२, पृ० १७१ ।।। ३. वही ॥ ४. सुत्तनिपात १०-६ ॥ ५. संयुत्त निकाय, १-६-९ ।।