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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप सदैव ही बुद्ध को मान्य रहे हैं । बुद्ध कहते थे कि भिक्षुओ ! क्या तुम शास्ता के गौरव से तो हाँ नहीं कर रहे हो ? जो तुम्हारा अपना देखा हुआ, अपना अनुभव किया हुआ है, उसी का तुम कह रहे हो ?' इस प्रकार बुद्ध श्रद्धा को प्रज्ञा से समन्वित करते हैं । सामान्यतया बौद्ध दर्शन में श्रद्धा को प्रथम और प्रज्ञा को अंतिम स्थान दिया गया है। साधना मार्ग की दृष्टि से श्रद्धा पहले आती है और प्रज्ञा उसके पश्चात् आती है। श्रद्धा के कारण ही धर्म का श्रवण, ग्रहण, परीक्षण
और वीर्यारम्भ होता है। नैतिक जीवन में श्रद्धा कैसे आवश्यक होती है, इसका सुन्दर चित्रण बौद्ध परम्परा के अश्वघोषकृत सौन्दरनन्द नामक ग्रन्थ में मिलती है । उसमें बुद्ध नंद के प्रति कहते हैं कि पृथ्वी के भीतर जल है यह श्रद्धा जब मनुष्य को होती है तब वह पृथ्वी को प्रयत्नपूर्वक खोदता है । भूमि से अन्न की उत्पत्ति होती है, यदि यह श्रद्धा कृषक में न हो तो वह भूमि में बीज क्षेपण नहीं करेगा। धर्म की उत्पत्ति में यही श्रद्धा उत्तम कारण है । जब तक मनुष्य तत्त्व को देख या सुन नहीं लेता, तब तक उसकी श्रद्धा स्थिर नहीं होती।
इस प्रकार साधना के क्षेत्र में प्रथम अवस्था श्रद्धा एक परिकल्पना के रूप में ग्रहण होती है और वही अंत में तत्त्व साक्षात्कार बन जाती है । "बुद्ध ने श्रद्धा और प्रज्ञा अथवा दूसरे शब्दों में जीवन के बौद्धिक और भावात्मक पक्षों में समन्वय किया है। यह ऐसा समन्वय है जिसमें श्रद्धा न तो अन्धश्रद्धा बनती है और न प्रज्ञा केवल बौद्धिक या तर्कात्मक ज्ञान बन कर रह जाती है ।
बौद्ध दर्शन में चार आर्य सत्यों की स्वीकृति को सम्यग्दृष्टि कहा है, उसी प्रकार जन साधना में षट् स्थानकों (छह बातों) की स्वीकृति को सम्यग्दृष्टि कहा है-(१) आत्मा है, (२) आत्मा नित्य है, (३) आत्मा अपने कर्मों का कर्ता है, (४) आत्माकृत कर्मों के फलों का १. वही, १-४-८॥ ३. जैन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग, पृ० ६६ ॥ . ३. वही, पृ० ६५-६६ ॥