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है किन्तु उसके पश्वात्वर्ती आगमों में मुनि के और गृहस्थ श्रावकों के लिए भी सम्यक्त्व की अनिवार्यता स्वीकार की है। साथ ही इसे ज्ञान से पूर्ववर्ती माना है। इसी के द्वारा अज्ञान ज्ञान में परिवर्तित होकर उसमें सम्यक्तता आती है । " तत्वार्थ सूत्र" में वाचकवर्य उमास्वाति ने सम्यक्त्व को पूर्णरूपेण श्रद्धान अर्थ का बाना पहना दिया है। तब से ही सम्यक्त्व का अर्थ श्रद्धान ही माना जाने लगा। श्रावक के बारह व्रतों में भी श्रद्धा को प्रथम स्थान देने हेतु " आचार दिनकर" में सम्यक्त्व प्रदान करने की विधि नियोजित की गई, संभवतः वही विधि आगे जाकर गुरू-मंत्र रूप में प्रसिद्ध हुई हो। ... सर्व धर्म-दर्शनों. ने सम्यग्दर्शन श्रद्धा को मोक्ष का हेतु समवेत स्वर से स्वीकार किया है। आध्यात्मिक दृष्टि से मोक्ष का कारण होने से इसका स्थान महत्त्वपूर्ण है ही किंतु लौकिक, व्यावहारिक जीवन में भी इसका मूल्यांकन कम नहीं है। जैन मान्यतानुसार इसका यथार्थ
दृष्टिपरक अर्थ करते हैं तो यह जीवन के प्रति एक दृष्टिकोण होकर .: अहिंसा, अनेकांत और अमासक्त जीवन जीने की कला इससे प्राप्त
होती है ।' जीवन दृष्टि के अनुसार ही व्यक्तित्व व चरित्र रूपी सृष्टि का .. निर्माण होता है।
.. व्यावहारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक नैतिकादि .. हर क्षेत्र में सम्यक्त्व ही उपयोगी है । क्योंकि दृष्टि के अनुसार सृष्टि
का निर्माण होता है। सही दृष्टि सही दिशा की ओर ले जाकर मंजिल तंक पहुँचाती है । व्यावहारिक सामाजिक क्षेत्र में तथा हर क्षेत्र में मैत्रीपूर्वक संबंध बनाए रखना, सम्यग् रीति से जीवन व्यतीत करना है । राजनैतिक व्यवस्था सम्यग न होगी तो भ्रष्टाचार बढ़ेगा फलतः अनैतिक्ता के कारण राष्ट्र का पतन हो जाएगा। धार्मिक व नैतिक क्षेत्र में स्पष्ट रूप से ही सम्यक्त्व की छाप दृष्टिगोचर होती है । इस प्रकार धार्मिक सिद्धांतों का व्यावहारिक जीवन में उपयोग होना ही सम्यक्त्व है । जीवन को सुव्यवस्थित रूप से, सुचारु रूप से प्रतिपादन करने में, उत्तरोत्तर आत्मिक गुणों के विकास में सम्यक्त्व ही सहायक है।