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उपोद्घात
अपने वक्तव्य में यत्किंचित् कहने से पूर्व सर्व प्रथम यही प्रकाशित करूंगी कि 'जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप' यह ग्रन्थ मेरी किस अन्तर्रेरणा का सुफल है । लौकिक व्यवहार में सम्यक्त्व समकित ये शब्द जैन धर्म के प्रायः सभी धर्मस्थानों में श्रवणगोचर होता है। कभी कभी तो यह भी सुनाई देता है कि मुझे अमुक गुरू, की समकित है। मैंने उन गुरु की समकित ली है । तो क्या 'सम्यक्त्व' अथवा 'समकित'. लेन-देन की वस्तु है ? जो कि गुरू अपने अनुयायियों को प्रदान करते हैं। इस प्रथा के रूप में ही इसका स्वरूप है या अनेकान्तवादी जैन दर्शन में इसका अन्य स्वरूप निर्धारित है। इसी शंका को इस शोध का श्रेय है । वास्तव में सम्यक्त्व ग्रहण करना आगमोक्त नहीं है, ऐसी बात नही है। जैन ग्रन्थों में सम्यक्त्व ग्रहण करने की विधि का उल्लेख है। इसका तात्पर्य तो बहुत विशद व सर्वाङ्गीण है । स्व स्वरूप का साक्षात् स्पर्श सम्यक्त्व के होने पर ही हो सकता है ।
भारतीय दर्शन की पृष्ठभूमि में आस्तिक दर्शनों में जैन दर्शन जीवात्मा को ही परमात्मस्वरूप होना स्वीकार करता है । आत्मा का अभ्युदय आत्माभिमुखता की ओर अग्रसर हुए बिना नहीं हो सकता । पराभिनिवेश से मुक्त है जिसका आत्मा वही परमात्म-पदकी ओर कदम बढ़ा सकता है । जब तक निश्चित रूप से जीवात्मा स्व-पर भेद विज्ञानी नहीं बन जाता तब तक मोक्षाभिमुख नहीं हो पाता । सम्यक्त्व संसार भ्रमण की परिधि को परिमित कर देता है। इसी तथ्य का विश्लेषण इस ग्रंथ में प्रस्तुत करने का मैंने प्रयास किया है।
जैनागम का प्रथम व प्राचीन शास्त्र आचाराङ्ग में सम्यक्त्व व मुनित्व का एकीकरण किया है। एवं मुनि जीवन का आधार सम्यक्त्व माना