________________
जैन दर्शन में सम्यक्त्व को स्वरुप सम्यग्दर्शन का लक्षण क्या हो सकता है ? यहाँ ग्रन्थकार के अनुसार यह विषय वाचा से अगोचर है । तब शंकाकार शंका करते है-चूंकिं सम्यग्दर्शन और स्वात्मानुभूति इनकी व्याप्ति पाई जाती है इसलिए स्वात्मानुभूति रूप से सम्यग्दर्शन कहने योग्य हो जाता है । तब यह कहा जा सकता है कि स्वात्मानुभूति ही सम्यक्त्व है।. .. ____ यहाँ समाधान करते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि उस स्वात्मानुभूति का शुद्ध नयरूप होना आवश्यक है । सम्यग्दर्शन और स्वात्मानुभूति इनकी विषम व्याप्ति है, क्योंकि उपयोगरूप अवस्था के रहते हुए इनकी समव्याप्ति नहीं पाई जाती । यदि पाई भी जाती है तो वह लब्धि रूप अवस्था के रहते हुए ही पाई जाती है। इसका खुलासा करते हुए कहते हैं कि-जब स्वानुभव होता है या स्वानुभव का काल होता है तब आत्मा : में सम्यक्त्व अवश्य पाया जाता है, क्योंकि सम्यग्दर्शन के बिना स्वानुभूति नहीं हो सकती।'
' ग्रन्थकार श्रद्धानादि को सम्यक्त्व का बाह्य लक्षण कहते हैं तो फिर सम्यक्त्व का लक्षण क्या है ? उसका कथन किया है
सम्यग्दर्शन के जो श्रद्धान आदि गुण बतलाये हैं सो बाह्य कथन के छल से ही बतलाये हैं। वास्तव में उसका ज्ञानचेतना यही एक लक्षण है । १. ततोऽस्ति योग्यता वक्तुं व्याप्तेः सदभावतस्तयोः । सम्यक्त्वं स्वानुभूतिः स्यात् सा चेच्छुद्ध नमात्मिका ।
__ -वही, गाथा ४०३ ॥ किंचास्ति विषमव्याप्तिः सम्यक्त्वानुभवद्वयोः । नोपयोगे समव्याप्तिरस्ति लब्धिविधौ तु सा | वही, गाथा ४०४ ।। तद्यथा स्वानुभूतौ वा तत्काले वा तदात्मनि ।
अस्त्यवश्यं हि सम्यक्त्वं यस्मात्सा न विनापितत् ॥ वही, गाथा ४०५ ।। २. श्रद्धानादिगुणाश्चैते बाह्योल्लेखच्छलादिह । अर्थात्सद्दर्शनस्यैकं लक्षणं ज्ञानचेतना ॥ वही, गाथा ८२० ॥ .