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________________ अध्याय ३ . - आगे कहते हैं कि-सम्यग्दर्शन के विषय में ऐसी यौगिक व लौकिक रूढि है कि वह सम्यग्दर्शन निश्चय और व्यवहार के भेद से दो प्रकार का है। उनमें से जो सराग और सविकल्प है वह व्यवहार सम्यक्त्व है तथा जो वीतराग और निर्विकल्प है वह निश्चयसम्यक्त्व है। उनमें से जो निर्विकल्प वीतराग सम्यग्दृष्टि है उसी के ज्ञानचेतना होती है और दूसरे सरागसम्यग्दृष्टि के यह ज्ञानचेतना कभी नहीं होती । सविकल्प और सरागी व्यवहारसम्यग्दृष्टि के प्रतीतिमात्र ही होती है । इस प्रकार ग्रन्थकर्ता ने इस ग्रन्थ में सम्यक्त्व के भेद, अंगों का पूर्वानुसार ही बिवरण किया है, किन्तु विशेषता यह बतलाई है कि सम्यक्त्व का लक्षण ज्ञानचेतना है । यह चेतना का ही एक भेद बताया है। ६. लोकप्रकाश ___इस ग्रन्थ के कर्ता महामहोपाध्याय श्री विनयविजयजी गणिवर्य है। इस ग्रन्थ में जैन दर्शन का सांगोपांग वर्णन किया है। सम्यक्त्व विषय पर इसमें विस्तृत प्रकाश डाला गया है। इनका समय अठारहवीं शती है। .. इस ग्रन्थ में सम्यग्दृष्टि किसे कहना चाहिये ? उसका उल्लेख किया है कि "जो जिनेश्वर प्रभु के वचनों का अनुसरण करके (इसके विपरीत. नहीं) वर्तन करता है उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं ।” १. ननु रुढिरिहाप्यस्ति योगाद्वा लोकतोऽथवा । तत्सम्यक्त्वं विधाप्यर्थनिश्चयाद व्यवहारतः ॥ वही, गाथा ८२१ ॥ व्यावहारिक सम्यक्त्वं सराग सविकल्पकम् । निश्चयं वीतरागं तु सम्यक्त्वं निर्विकल्पकम् || वही, गाथा ८२२ ।। २. तत्रास्ति वीतरागस्य कस्यजिज्ज्ञानचेतना । सददृष्टेनिर्विकल्पस्य नेतरस्य कदाचन ।। वही, गाथा ८२५ ॥ . व्यावहारिकसदृष्टेः सविकल्पस्य रागिण: ।। प्रतीतिमात्रमेवास्ति कुतः त्याज्ञानचेतना ।। वही, गाथा ८२६ ॥ ३. लोकप्रकाश, सर्ग ३, द्वार २५, गाथा ५९७ ।।
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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