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अध्याय ३ .. . ग्रन्थकर्ता यहाँ सम्यक्त्व के विषय में कहते हैं कि सम्यग्दर्शन सामान्य और विशेष दोनों प्रकार से निर्विकल्प है, सत्त्व रूप है
और केवल आत्मा के प्रदेशों में परिणमन करने वाला है।' ___अब तक जो पूर्वोक्त ग्रन्थों सम्यक्त्व का लक्षण श्रद्धान माना गया है यहाँ ग्रन्थकार उसके विषय में कह रहे हैं कि-सम्यग्दृष्टि आत्मा के यद्यपि श्रद्धानादि गुण होते हैं पर वे उसके बाह्य लक्षण है । सम्यक्त्व उस रूप नहीं है, क्योंकि वह ज्ञान की पर्याय है तथा आत्मानुभूति भी ज्ञान ही है सम्यक्त्व नहीं। यदि उसे सम्यक्त्व माना जाय तो वह भी उसका बाह्य लक्षण है । आशय यह है कि जिस प्रकार स्वास्थ्य लाभजन्य हर्ष का ज्ञान करना कठिन है, पर वचन मन
और शरीर की चेष्टाओं के उत्साह आदि गुण रूप स्थूल लक्षणों से उसका ज्ञान कर लिया जाता है उसी प्रकार अतिसूक्ष्म और निर्विकल्प सम्यग्दर्शन का ज्ञान करना कठिन है तो भी श्रद्धान आदि बाह्य लक्षणों से उसका ज्ञान कर लिया जाता है ।' : वास्तव में सरांग्दर्शन सूक्ष्म है और यह वचनों का अविषय है, इसलिए कोई भी जीव विधिरूप से उसके कहने और सुनने का अधिकारी नहीं है।" .१. सामान्यद्वा विशेषाद्वा सम्यक्त्वं निर्विकल्पम् ।। . सत्तारूपं परिणामि प्रदेशेषु परं चितः। पंचाध्यायी, दूसरा अध्याय,
गा० ३८१ ।। २: श्रद्धानादिगुणा बाह्य लक्ष्म सम्यग्टगात्मनः ।
न सम्यक्त्वं तदेवेति सन्ति ज्ञानस्य पर्ययाः ॥ वही, गा० ३८६ ।। अपि स्वात्मानुभूतिस्तु ज्ञानं ज्ञानस्य पर्यपात् । अर्थात्ज्ञानं न सम्यक्त्वमस्ति चेद बाह्यलक्षणम् ।। वही, गा० ३८७ ।। ३. यथोल्लाघो हि दुर्लक्ष्यो लक्ष्यते स्थूललक्षणैः ।
वाङ्मनः काय चेष्टानामुत्साहादि गुणात्मकैः ॥ वही, गाथा, ३८८ ॥ ४. सम्यक्त्वं वस्तुतः सूक्ष्ममस्ति वाचोमगोचरम् ।। तस्मात वक्तुं च श्रोतुं च नाधिकारी विधिक्रमात ॥
-वही, गाथा ४०० ॥