________________
१६४.
जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप शत्रु को जीत नहीं सकता । इसी प्रकार निवृत्ति (संतोष) करता हुआ, कामभोगों का त्याग करता हुआ, और दुःख को भी हृदय में स्थान देता हुआ, मिथ्यादृष्टि सिद्ध नहीं होता।'
इस प्रकार सम्यक्त्व से जो रहित है वह कभी सिद्ध नहीं हो सकता। सम्यक्त्व के माहात्म्य का वर्णन करते कहा कि
आँखों में पुतली का तरह एवं पुष्प में सुगंध की तरह सभी धर्मकार्यों का सार सम्यक्त्व है।
इस प्रकार अध्यात्म सार में सम्यत्क्व की उत्कृष्टता का वर्णन किया गया है एवं तत्त्वश्रद्धान के साथ अहिंसामय इसका स्वरूप निर्धारित किया है। इस प्रकार की रुचि एवं सम्यक्त्व के पाँच लक्षणों. का भी इसमें विवेचन किया गया है। ५. पंचाध्यायी ___ इस ग्रन्थ के कर्ता कवि राजमल्ल जी हैं। ये कौन थे ? इनका इतिहास उपलब्ध नहीं होता। इनके द्वारा रचित, लाटी संहिता में अंत के २ श्लोकों में ये अपने आपको हेमचन्द्र के आम्नाय का मानते हैं । यह पंचाध्यायी ग्रंथ अपूर्ण है । इस ग्रन्थ के. अरिरिक्त अध्यात्मकमलमार्तण्ड, लाटी संहिता एवं जम्बूस्वामि चरित ये अन्य कृतियाँ भी है। इनका समय सत्रहवीं शती है ।
प्रस्तुत ग्रन्थ में इन्होंने सम्यक्त्व विषय पर विशेष रूप से विचार किया है। १. कुर्वाणोऽपि क्रियां ज्ञाति-धन-भोगांस्त्यन्नपि ।
दुःखस्योरो ददानोऽपि नान्धो जयति वैरिणः ॥ कुर्वन्निवृत्तिमप्येवं कामभोगास्त्यजन्नपि ।
दुःखस्योरो ददानोऽपि मिथ्यादृष्टि न सिध्यति । वही, गा० ३-४॥ २. कनीनिकेव नेत्रस्य कुसुमस्येव सौरभम् ।
सम्यक्त्वमुच्यते सारं सर्वेषां धर्मकर्मणाम् ॥ वही, गाथा ५ ॥
पचाध्याया
।