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मध्याय २ .
किया है। संभवतः यही विधि आगे जाकर गुरुमंत्र रूप में प्रसिद्ध हुआ हो। यह व्यवहारापेक्षा से ही है वास्तव में सम्यक्त्व लेन-देन की वस्तु नहीं, यह तो आत्मपरिणामों के आधार से, स्वयं के पुरुषार्थ से प्राप्तव्य है। इस ग्रन्थ में सम्यक्त्व के पांच लक्षण, पांच भूषण, पांच दूषण एवं आठ दर्शनाचारों पर भी प्रकाश डाला गया है। (४) अध्यात्म-सार
यह उपाध्याय यशोविजयजी गणि की कृति है। यह अध्यात्मविषयक संस्कृत रचना है। इनका समय सत्रहवीं शती है। - ग्रन्थकार सम्यक्त्व के विषय को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि " सम्यक्त्व के होने पर ही परमार्थतः (वस्तुतः) मन की शुद्धि होती है। सम्यक्त्व के बिना हुई मनःशुद्धि मोहगर्भित तथा प्रत्यपाय (गुणहानि के निरंतर संबंध वाली यानि विपरीत फलदायिनी होती है) से संबंधित होती है।' • ग्रन्थकार के अनुसार मनःशुद्धि का कारण यहाँ सम्यक्त्व माना गया है। इसी के संबंध में पुनः कहते हैं कि “दानादि समस्त क्रियाएं सम्यक्त्वसहित हों, तभी वे शुद्ध हो सकती हैं, क्योंकि उन क्रियाओं के मोक्षरूपी फल में यह सम्यक्त्व सहकारी-सहयोगी है"।२
. जो सम्यग्दृष्टि नहीं है उसकी क्रियाएँ किस प्रकार सफल नहीं होती उसका उदाहरण देते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि
अन्धा मनुष्य चाहे जितनी क्रियाएं (शारीरिक चेष्टाएं) कर ले, वह अपनी जाति, धन और भोगों का भी त्याग कर दे तथा कष्टों को अपने हृदय में स्थान दे दे (यानि कितने ही दुःख सहले) तो भी वह १. मनःशुद्धिश्च सम्यक्त्वे सत्येव परमार्थतः । तद्विना मोहगर्भा सा प्रत्य पायानुबन्धि नी ॥
-अध्यात्मसार, प्रबंध ४, अधिकार १२. गाथा.१ ॥ २. सम्यक्त्व सहिता एव शुद्धादानादिकाः क्रियाः । तासां मोक्षफले प्रोक्ता यदस्य सहकारिता ।। वही, गाथा २ ॥