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________________ जन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप सन्निवारण नाभिभविज्जामि जाव अन्नेण वा केणइ परिणामवसेण परिणामो मे न परिवङ्टइ ताव मे एअं सम्महसणं अन्नत्थ रायाभिओगेणं बलामिओगेणं गणाभिओगेणं देवयामिओगेणं गुरुनिग्गहेणं वित्तीकंतराएणं वोसिरामि"। ___ अर्थात् हे भगवन् ! मैं आपके सामने मिथ्यात्त्र का प्रतिक्रमण करता हूँ और सम्यक्त्व को ग्रहण करता हूँ। वह इस प्रकार हैंद्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, ओर भाव से, द्रव्य से मिथ्यात्व के कारणों का प्रत्याख्यान करता हूँ और सम्यक्त्व के कारणों को ग्रहण करता हूँ। मुझे आज से अन्य तीर्थिक को अथवा अन्य तीर्थिक देवता को अथवा अन्य तीथिकों द्वारा गृहीत अरिहन्त चैत्यों को वंदन करना नमस्कार करना नहीं कल्पता है। अन्य तीथिकों से पूर्व में आलाप अर्थात् बातचीत की हो, उससे बात करना, · बारंबार बात करना, उनको अशन-पान-खादिम और स्वादिम देना अथवा अनुप्रदान करना, क्षेत्र से यहाँ का क्षेत्र, काल से-यावज्जीवन पर्यन्त, भाव से-जब तक ग्रह से ग्रस्त न हो जाऊं (भूत पिशाचादि) यावत् छल से छला न जाऊं यावत् सन्निपात से ग्रस्त न हो जाऊं अथवा अन्य किसी भी परिणाम से मेरे परिणाम विचलित न हो जावे तब तक मेरा यह सम्यग्दर्शन है । अपवाद रूप में राजाभियोग, बलाभियोग, गणाभियोग, देवताभियोग, गुरुनिग्रह से दुष्काल अथवा वन में फंस जाने पर इन आगार से इन सबका त्याग करता हूँ।' ___ इसका उच्चारण कर पुनः कहता है कि " अरिहंतो मह देवो जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो, जिण पन्नत्तं तत्तं इय संमत्तं मए गहियं " अर्थात् अरिहंत ही मेरे देव हैं, यावज्जीवनपन्त सुसाधु मेरे गुरु हैं और जिन प्ररूपित तत्त्व ही मेरा धर्म है यह सम्यक्त्व मैं ग्रहण करता हूँ"। इस प्रकार सम्यक्त्व ग्रहण विधि का उल्लेख इस ग्रन्थ में १. आचारदिनकर, भाग १, पृ. ४६ ॥ २. वही, पृ. ४७ ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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