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अध्याय २.. तथा नपुंसक और स्त्री की पर्याय को प्राप्त नहीं होते और न भवान्तर में निंद्य कुलों को, अंगों की विकलता को, अल्पायु व दरिद्रता को ही प्राप्त होते हैं।" तथा वे ओज, तेज, बल, वीर्य-यश-वृद्धि-विजय वैभव से युक्त होते हैं महाकुल-महार्थ व मानव तिलक स्वरूप होते हैं। इस प्रकार यहाँ सम्यक्त्व का गुणोत्कीर्ण किया है। (२) मूलशुद्धि
प्रद्युम्नसूरि कृत " मूल शुद्धि” का वर्णन पूर्व में कर दिया गया है। इसमें सम्यक्त्व के सडसठ भेद बताये हैं। (३) आचारदिनकर . यह ग्रन्थ वर्धमानसूरि विरचित है। इसमें विभिन्न आचार ग्रहण करने की विधियों का उल्लेख है । इसका रचना समय वि० सं० १४६८ है।
इस ग्रन्थ में ग्रन्थकार ने सम्यक्त्व ग्रहण करने की विधि वर्णित की है। जिस प्रकार अन्य. सम्प्रदायों में गुरुमंत्र आदि दिया जाता है, उसी प्रकार यहाँ इसका विधान किया है। यह सम्यक्त्व का प्रतिज्ञा सूत्र है, जो कि गुरुमहाराज के समक्ष लिया जाता है. “अहणं भंते तुम्हाणं समीवे मिच्छत्ताओ पडिकमामि सम्मत्तं • उवसंपज्जामि, तं जहा-दव्वओ खेत्तओ कालओ भावओ दव्वओ मिच्छत्त कारणाइं पच्चक्खामि सम्मत्तकारणाई उवसंपज्जामि नो मे कप्पेइ अज्जप्पभिई अन्नओ-तिथिएवा अन्नउत्थिअदेवयाणि वा अन्नउस्थिअपरिग्गाहियाणि अर्हतचेइआणि वंदित्तएवा नमंसित्तएवा पुद्वि अणालत्तण आलवित्तएवा संलवित्तएवा तेसिं असणं वा पाण वा खाइयं वा साइमं वा दाउं वा अणुप्पयाउ वा खित्तओणं इहेव वा अन्नत्थ वा कालओणं जावज्जीवाए भावओणं जाव गहेणं न गहिज्जामि जावच्छलेण नच्छलिज्जामि जाव १. वही, गाथा ३५ ॥ २. वही, गाथा ३६ ॥