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________________ जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप प्रतीति, प्रत्यय (विश्वास ), निश्चय, अनुराग, सादर मान्यता, गुणप्रीति, प्रतिपत्ति ( सेवा, सत्कार ) और भक्ति जैसे शब्दों के आशय से हैं।' __ ग्रन्थकार ने पूर्वसूत्रानुसार आप्त, आगम का स्वरूप कथन किया है तथा सम्यग्दर्शन के अष्ट-अंगों का विवेचन भी किया है । २ . ग्रन्थ में सम्यग्दृष्टि के विशेष कर्तव्यों का कथन करते हुए. कहा गया है कि " शुद्ध सम्यग्दृष्टियों को चाहिये कि वे (श्रद्धा तथा मूढ़दृष्टि से ही नहीं किन्तु ) भय से लौकिक अनिष्ट की सम्भावना को लेकर उससे बचने के लिए-आशा से-भविष्य की किसी इच्छापूर्ति को ध्यान में रखकर-स्नेह से लौकिक प्रेम के वश होकर तथा लोभ से-धनादिक का कोई लौकिक लाभ स्पष्ट साधता हुआ देखकर भी कुदेव-कुआगम-कुलिंगियों को प्रणाम तथा विनयादि रूप आदर नं करे । मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन का क्या स्थान है ? उसके लिए कहा कि “ सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की अपेक्षा सम्यग्दर्शन उत्कृष्टता को प्राप्त है इसलिए मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन को कर्णधार कहते है।" सम्यग्दर्शन की उत्कृष्टता के लिए कथन है कि " जिस प्रकार बीज के अभाव में वृक्ष की उत्पत्ति, वृद्धि और फल सम्पत्ति नहीं बन सकती उसी प्रकार सम्यक्त्व के अभाव में सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की उत्पत्ति, स्थिति, स्वरूप में अवस्थान, वृद्धि-उत्तरोत्तर उत्कृष्ट लाभ और यथार्थ फल सम्पत्ति-मोक्षफल की प्राप्ति नहीं हो सकती। साथ ही तीन काल और तीन लोक में सम्यक्त्व के समान अन्य कोई वस्तु नहीं जो श्रेय रूप हो । इसके माहात्म्य का कथन करते हुए कहाजो सम्यग्दर्शन से शुद्ध हैं वे अव्रती होते हुए भी नरक तियेच गति को १. वही, टीका, पृ॰ ३३ ।। २. वही, गाथा ४-९ एवं ११-१८ ॥ ३. र० क० श्रा०, गाथा ३० ।। ४ वही, गाथा ३१ ॥ ५. वही, गाथा ३२ ॥ ६. वही, गाथा ३४ ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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