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अध्याय २
१५९
इसमें सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए पच्चीस दोषों का परिहार लिखा है - यह सम्यग्दर्शन द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव रूप सामग्री को प्राप्त होकर तथा सम्यग्दर्शन की शक्ति के घात करने वाले पच्चीस दोषों को छोड़ने से कचित् प्राप्त होता है ।'
इन पच्चीस दोषों का सूत्रकार ने तो वर्णन नहीं किया किन्तु ग्रन्थातर से लेकर उसका उल्लेख किया है - तीन मूढ़ता, आठ मद, छः अनायतन और शंकादि आठ दोष इस प्रकार ये पच्चीस दोषसम्यग्दर्शन के कहे हैं ।' श्रावक धर्म प्रदीप में भी इसका वर्णन किया है।
इस प्रकार सम्यक्त्व के पच्चीस दोषों का विवेचन यहाँ किया गया है ।
१ - रत्नकरण्ड श्रावकाचार
इसे समीचीन धर्मशास्त्रं तथा उपासकाध्ययन भी कहा जाता है । . यह श्रीमत्स्वामि समन्तभद्राचार्य विरचित है। इसके सात परिच्छेदों . में से प्रथम परिच्छेद सम्यग्दर्शन पर है ।
इसमें सम्यग्दर्शन के स्वरूप का कथन किया है कि परमार्थ आप्त, परमार्थ आगम और परमार्थ तपस्वियों का जो अष्ट अंग सहित, तीन मूढ़ता रहित तथा मदविहीन श्रद्धान है उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं । "
टीकाकार के अनुसार यहाँ श्रद्धान से अभिप्राय श्रद्धा, रुचि,
१. द्रव्यादिकमथासाद्य तज्जीवैः प्राप्यते क्वचित् । पंचविंशतिमुत्सृज्य दोषा तच्छक्तिघातकम् ॥
- ज्ञानार्णव, षष्ठ सर्ग, गाथा ८ ॥
२. मृढत्रयं मदाश्चाष्टौ तथाऽनायतनानि षष्ट अष्टौ शंकादयश्चेति हग्दोषाः पंचविंशति || वही || ३. श्रावक धर्म प्रदीप - आचार्य कुंथूसागर ||
४. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, गाथा ४, पृ० ३२ ।।