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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप
शास्त्र, सद्गुरु की वाणी और स्वानुभव के आधार पर इस योगशास्त्र की रचना की गई है । इनका समय वि० सं० १९४५ है ।
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ग्रन्थकार के अनुसार पांच अणुव्रत, तीन गुणवत औ शिक्षाव्रत इस प्रकार जो श्रावक के बारह व्रत है वे सम्यक्त्वमूलक होते हैं ।'
पूर्व में कहा जा चुका है कि विरति का मूल संम्यक्त्व है अतः यहाँ श्रावक के बारह व्रत का भी सम्यक्त्वमूलक होना बताया है । इसके अतिरिक्त देव-गुरु-धर्म में तथाप्रकार की बुद्धि को सम्यक्त्व कहा है ।" एवं सम्यक्त्व के लक्षण, पांच दूषण, तथा पांच भूषणों का कथन किया गया है।
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(७) ज्ञानार्णव
इसका दूसरा नाम योगार्णव है । इसमें योगीश्वरों के आचरण करने योग्य, जानने योग्य सम्पूर्ण जैन सिद्धांत का रहस्य भरा हुआ है । यह आचार्य शुभचन्द्र की रचना मानी जाती है। हालांकि ज्ञानार्णव में श्री शुभचन्द्रसूरि ने अपने विषय में कुछ नहीं लिखा । उनके समयादि के विषय में कहा है कि ज्ञानार्णव के कई श्लोक इष्टोपदेश की वृत्ति में दिगम्बर आशाधर ने उद्धृत किये हैं । इस आधार पर वि० सं० १२५० के आसपास इसकी रचना हुई होगी ऐसा माना जा सकता है ।
ज्ञानार्णव में सम्यक्त्व सम्बन्धी विचार किया है, जो कि पूर्वानुसार ही है ।
१. योगशास्त्र, द्वितीयप्रकाश, गाथा
२. वही, गाथा २ ।
३. वही, गाथा १५, पृ० १०२ ।
पृ० ९१ ।।
४. वही, गाथा १६, पृ० १०५ ।।
५. वही, गाथा १७ पृ० १०७ ॥
६. जैन साहित्य का बृहद् ईतिहास, भाग ४, पृ० २४८ ॥