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अध्याय २
१५७
सासादन
प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अन्तर्मुहूर्तकाल में से जब जघन्य एक समय तथा उत्कृष्ट छः आवली प्रमाणकाल शेष रहे उतने काल में अनन्तानुबन्धी कषाय में से किसी एक के भी उदय से सम्यक्त्व की विराधना होने पर सम्यग्दर्शन गुण की जो अव्यक्त तत्त्व श्रद्धानरूप परिणति होती है, उसको सासन या सासादन गुणस्थान कहते हैं । सम्यक्त्वरूपी रत्न पर्वत के शिखर से गिर कर जो जीव मिथ्यात्वरूप भूमि के सम्मुख हो चुका है किंतु मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं किया है उसे सासादन गुणस्थानवर्ती कहते हैं । मिश्रः
जिस प्रकार दही और गुड को परस्पर इस तरह मिलाने पर कि उनको फिर पृथक् पृथक् नहीं कर सकें उस द्रव्य के प्रत्येक परमाणु का रस मिश्ररूप होता है उसी प्रकार एक ही काल में सम्यक्त्व और मिथ्यात्वरूप होते हैं । - इस प्रकार चौदह गुणस्थानों का षट्खण्डागम सूत्र के अनुसार, एवं 'सम्यक्स्व का स्वरूप, भेद-प्रभेद, अंग, दोष आदि का वर्णन गोम्मटसार . में ही नहीं अन्य ग्रंथों में यथा-लब्धिसार, क्षपणासार, कर्मप्रकृति ' एवं प्रवचनसारोद्धार में किया है । . (६) योगशास्त्र
यह कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरि की कृति है । प्रस्तुत कृति योगोपासना के अभिलाषी कुमारपाल की अभ्यर्थना का परिणाम है । १. आदिम सम्मत्तद्धा समयादो छावलित्ति वा सेसे ।। अणअण्णदरुदयादो णासियसम्मोत्ति सासणक्खो सो । सम्मत्तरयणपव्यय सिहरादो मिच्छभूमिसमभिमुहो। णासिय सम्मत्तो सो सासणनामो मुणेयव्यो ॥ वही, गाथा १९-२० ॥ २. दहिगुडमिव वामिस्सं पुहभावं ण कारिदुं सक्कं ।। एवं मिस्सयभावो सम्मामिच्छोत्तिणावो ॥ वही, गाथा २२ ॥