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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप
३. कुशास्त्र, ४. कुशास्त्र का धारक, ५. खोटी तपस्या और ६. खोटी तपस्या करने वाले; ये मिध्यात्वप्रकृति के नोकर्म है । तथा आयतन दोनों मिले हुए सम्यग्मिध्यात्वदर्शनमोहनीय के नोकर्म है, ऐसा निश्चय समझना । '
इस प्रकार नोकर्म सम्यक्त्व प्रकृति व मिथ्यात्व प्रकृति व मिश्र प्रकृति का यहाँ वर्णन किया है ।
यथाप्रवृत्तकरण का नामोल्लेख यहाँ अधःप्रवृत्तकरण किया है और उसका लक्षण दिया है -
जिस कारण इस पहले करण में उपर के समय के परिणाम नीचे के समय संबंधी भावों के समान होते हैं इस कारण पहले करण . का नाम अधःप्रवृत्त ऐसा अन्वर्थ कहा गया है ।
इस प्रकार गोम्मटसार के कर्मकाण्ड में सम्यक्त्वविषयक चर्चा की है । गोम्मटसार के जीवकाण्ड में ग्रन्थकर्त्ता ने गुणस्थान के स्वरूप का वर्णन किया है । जो कि षट्खण्डागम ग्रन्थ से भिन्न एवं उदाहरणयुक्त है । जो निम्न है
१. मिथ्यात्व - मिध्यात्व प्रकृति के उदय से उत्पन्न होने वाले मिथ्या परिणामों का अनुभव करने वाला जीव विपरीत श्रद्धान वाला हो जाता है । उसको जिस प्रकार पित्तज्वर से युक्त जीव को भीठा रस भी अच्छा मालूम नहीं देता उसी प्रकार उसे यथार्थ धर्म भी अच्छा मालूम नहीं होता है ।
१. आयदणाणायदणं सम्मे मिच्छे य होदि णोकम्मं ।
उभयं सम्मामिच्छे णोकम्मं होदि नियमेण || वही गाथा ७४ ॥ २. जम्हा उवरिमभावा हेट्टिमभावेहिं सरिसगा होंति । तम्हा पढमं करणं अधापवत्तोत्ति निद्दिठं | वही, गाथा ८९८ ॥ ३. मिच्छतं वेदंतो जीवो विवरीय दंसणो होदि ।
धम्मं रोचेदि हु महुरं खु रसं जहा जरिदो ॥
- जी० का०, गाथा १७ ।।