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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप इस प्रकार यहाँ सम्यक्त्व के माहात्म्य का वर्णन किया है। . ४. पुरुषार्थसिद्धयुपाय
इसके कर्ता प्रवचनसार आदि के टीकाकार दिगम्बर अमृतचंद्रसूरि है। इसे “ जिनप्रवचनरहस्यकोश" तथा " श्रावकाचार" भी कहते हैं। इनका समय ईसा की दसवीं सदी के लगभग है।' . ..
ग्रन्थकार पुरुषार्थसिद्धि उपाय उसे कहते हैं जो विपरीत श्रद्धान को नष्ट कर निजस्वरूप को यथावत् जानते हैं तथा उस अपने स्वरूप से च्युत नहीं होते वहीं पुरुषार्थसिद्धि-उपाय है।
यहाँ ऐसा विदित होता है कि ग्रन्थकार सम्यग्दर्शन को पुरुषार्थसिद्धि-उपाय से अभिप्रेत कर रहे हैं क्योंकि विपरीत श्रद्धान का त्याग : होने पर सम्यग्दर्शन होता है।
इसमें सम्यक्त्व का स्वरूप सम्यक्त्व के निःशंकित आदि आठ अंगों एवं सात तत्त्वों व अतिचारों का कथन व विवेचन किया गया है। साथ ही कहा है कि अपनी आत्मा का विनिश्चय यह सम्यग्दर्शन है तथा आत्मा का विशेष ज्ञान यह सम्यग्ज्ञान है। यह सम्यग्ज्ञान कार्य है उसका सम्यग्दर्शन कारण है । ५. नेमिचन्द्राचार्य
गोम्मटसार आदि ग्रन्थों के कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती विक्रम की ११वीं शताब्दी में विद्यमान थे । ये चामुण्डराय के समकालीन थे। चामुण्डराय गोम्मटराय भी कहलाते थे। क्योंकि उन्होंने श्रवण
१. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ४, पृ० १५० ॥ २. पुरु०, गाथा १५, पृ० १४ ।। ३. वही, गाथा २२ ॥ ४. वही, गाथा २३-३० ॥ ५. पुरु० गाथा २१६, पृ० ११० ॥ ६. वही, गाथा ३३