________________
अध्याय २.
. ग्रन्थकर्ता ने सम्यग्दर्शन का माहात्म्य निर्देश किया है-यह सम्यग्दर्शन मोक्ष रूपी महल की पहली सीढ़ी है। नरकादिक दुर्गतियों के द्वार को रोकने वाले मजबूत किवाड़ है, धर्मरूपी वृक्ष की स्थिर जड़ है, स्वर्ग और मोक्षरूपी घर का द्वार है और शीलरूपी रत्नहार के मध्य में लगा हुआ श्रेष्ठरत्न है।'
जिस पुरुष ने अत्यंत दुर्लभ इस सम्यग्दर्शनरूपी श्रेष्ठ रत्न को पा लिया है वह शीघ्र ही मोक्ष तक के सुख को पा लेता है।
जो पुरुष एक मुहूर्त के लिए भी सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता है वह इस संसार रूपी बेल को काटकर बहुत ही छोटी कर देता है। अर्थात् वह अर्द्धपुद्गल परावर्तन से अधिक समय तक संसार में नहीं रहता।
जिसके हृदय में सम्यग्दर्शन विद्यमान है वह उत्तम देव और उत्तम मनुष्य पर्याय में ही उत्पन्न होता है उसके नारकी और तिर्यचों के खोटे जन्म कभी नहीं होते।
जिस प्रकार शरीर के हस्त पाद आदि अंगों में मस्तक प्रधान है और मुख में नेत्रप्रधान है उसी प्रकार मोक्ष के समस्त अंगों में गणधरादि देव सम्यग्दर्शन को ही प्रधान अंग मानते हैं।' १. सिद्धिप्रसादसोपानं विद्धि दर्शनमग्रिमम् । · दुर्गतिद्वारसंरोधि कवाटपुटमूर्जितम् ।।
स्थिरं धर्मतरोर्मूलं द्वारं स्वक्षिधेश्मन । ...शीलाभरणहारस्य तरलं तरलोपमम् ॥ वही, गाथा १३१-१३२ ।। २. सम्यग्दर्शनसद्रत्नं येना सादि दुरासदम् ।।
सोऽचिरान्मुक्तिपर्यन्तां सुखतातिमवाप्नुयात् ।। वही, गाथा १३४ ॥ ३. लब्धसद्दर्शनो जीवो मुहूर्तमपि पश्य यः ।
संसारलतिकां छित्त्वा कुरुते हासिनीमसौ ।। वही, गाथा १३५ ।। ४. सुदेवत्वसुमानुष्ये जन्मनी तस्य नेतरत् । ___ दुर्जन्म जायते जातु हृदि यस्यास्ति दर्शनम् ॥ वही, गाथा १३६ ॥ ५. उत्तमांगमिवांगेषु नेत्रद्वयमिवानने । मुक्त्यंगेषु प्रधानांगम् आप्ता सद्दर्शनं विदुः ॥ वही, गाथा १३९ ॥