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- जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप सम्यक्त्व धारण करने का बोध दे रहे है। उसका कथन करते हुए कहा है
काललब्धि के बिना इस संसार में जीवों को सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति नहीं होती है। जब देशनालब्धि और काललब्धि आदि बहिरंग कारण तथा करणलब्धि रूप अंतरंग करण सामग्री की प्राप्ति होती है तभी यह भव्य प्राणी विशुद्ध सम्यग्दर्शन का धारक हो सकता है।'
यह सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का मूल कारण है। इसके बिना ये दोनों नहीं हो सकते है। जीवादि सात तत्त्वों का तीन मूढता रहित और आठ अंगों सहित यथार्थ श्रद्धान करना सम्यग् दर्शन है।
अब आगे ग्रन्थकार सम्यग्दर्शन के पर्याय का कथन करते हैं - श्रद्धा, रुचि, स्पर्श और प्रत्यय ये उसके पर्याय हैं।'
सूत्रकार ने जो सम्यक्त्व के स्वरूप में तीन मूढता को वर्जित करने को कहा, उसका विवेचन करते हुए कहा कि-देवमूढता, लोकमूढता और पाषण्ड मूढता इन तीन मूढताओं को छोड क्योंकि मूढताओं से अंधा हुआ प्राणी तत्त्वों को देखता हुआ भी नहीं देखता है।'
१. तगृहाणाद्य सम्यक्त्वं तल्लाभे काल एष ते । काल लब्ध्या विना नार्य तदुत्पत्तिरिहांगिनाम् ॥
-महापुराण, गाथा ११५ ॥ देशना काललब्ध्यादिबाह्यकारणसम्पदि । अन्तःकरणसामग्रयां भव्यात्मा स्याद् विशुद्ध कृत् ॥
-महापुराण, गाथा ११६ ॥ २ सम्यग्दर्शनमाम्नातं तन्मूले ज्ञानचेष्टिते ॥ महापुराण, गाथा १२१ ॥ ३. आत्मादिमुक्तिपर्यन्ततत्त्वश्रद्धान मंजसा ।
त्रिभिर्मूढेरनालीढम् अष्टांगं विद्धि दर्शनम ॥ वही, गाथा १२२ ॥ ४. श्रद्धारुचिस्पर्शप्रत्ययाश्चेति पर्ययाः ।। वही, गाथा १२३ ॥ ५. देवतालोकपाषण्डव्यामोहांश्च समुत्सृज । मोहान्धो हि जनस्तत्त्वं पश्यन्नपि न पश्यति ॥ वही, गाथा १२८ ॥