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अध्याय ३
.. सम्यग्दृष्टि प्रायः देव व मनुष्य आयु का बन्ध करता है यहाँ यह दृष्टिगत होता है।
इस ग्रंथ में ग्रंथकार सम्यक्त्वपूर्वक ही सम्यग्ज्ञान होता है इसकी दृढता से पुष्टि करते हैं।'
जिस प्रकार वस्त्र बुनते समय ताना सफेद हो, किन्तु उसके साथ बाना अन्य वर्ण का हो तो वस्त्र की शोभा जाती रहती है उसी प्रकार सम्यक्त्व निर्मल हो किंतु उसके साथ विषयकषाय प्रमाद के आ मिलने पर वह बिगड़ जाता है अतः सम्यक्त्व को मलिन करने वाले प्रमादादि शत्रुओं से बचना चाहिये ।
इस प्रकार सम्यक्त्व विचारणा प्रस्तुत की है। ३. महापुराण
दिगम्बराचार्य जिनसेन की यह कृति है। जोकि वीरसेन स्वामी के शिष्य थे। अपने गुरु की जयधवला टीका को आपने पूर्ण किया। महापुराण भी आप पूर्ण न कर सके, उसका उत्तरपुराण उनके शिष्य गुणभद्राचार्य ने पूर्ण किया। जिनसेन सिद्धान्तज्ञ तो थे ही साथ ही साथ उच्चकोटि के कवि भी थे । शक संवत् ७७० तक अथवा ७६५ तक (इस प्रकार ई० सन् ८४८) तक जिनसेन स्वामी का अस्तित्व काल मानते . हैं। अतः आपका समय ९वीं शती है । ... इसके अतिरिक्त पार्वाभ्युदय नामक कृति संस्कृत साहित्य में एक कौतुकजन्य उत्कृष्ट रचना है।
अन्य ग्रन्थों के सदृश इसमें सम्यक्त्व का विवेचन तो है किन्तु वह उपदेशात्मक भाषा में है। मुनि वनसंघ को उपदेश देते हुए उसे
१. वही, गाथा २७१ ॥ २. जहा मुसताणए पंडुरिमि, दुव्वन्न-रागवन्नहिं ।
बीभच्छा पडसोहा, इय सम्मतं पमाएहिं ॥ वही, गाथा २७३ ।। ३. महापुराण, प्रस्तावना, पृ० ३३-३४ ॥