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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप. है। अतः इसका अपरनाम " ठाणा" उचित महसूस होता है। यह ग्रन्थ अभी अपूर्ण प्रकाशित हुआ है।' २. उपदेशमाला
इस कृति के प्रणेता क्षमाश्रमण धर्मदासगणी है। इनके विषय में ऐसी मान्यता प्रचलित है कि ये स्वयं महावीर स्वामी के हस्तदीक्षित शिष्य थे, परंतु यह मान्यता विचारणीय है, क्योंकि इस ग्रन्थ में सत्तर के लगभग जिन कथाओं का सूचन है उनमें वनस्वामी का भी उल्लेख है। इसकी भाषा भी आचारांग आदि जितनी प्राचीन नहीं है। ___सम्यक्त्व विषय पर विचार करते हुए इस ग्रन्थ में कहा है कि " सम्यक्त्व प्रदाता गुरुजनों के उपकारों का बदला चुकाना अनेक . जन्मों में भी दुःशक्य है। क्योंकि अनेक भवों में भी गुरुदेव के करोड़ गुणा उपकारों से उपकृत व्यक्ति सारे गुणों द्वारा दो तीन चार गुणा प्रत्युपकार मिलाकर भी अनन्तगुणा उपकार तक नहीं पहुँच सकता।'
यहाँ सम्यक्त्व प्रदाता गुरु के उपकार से अनृण नहीं हो सकते, उनका असीम उपकार उस आत्मा पर होता है। आगे यहाँ कथन करते हैं कि सम्यक्त्व प्राप्त हो जाने पर उस जीव के नरक व तिर्यच के द्वार बन्ध हो जाते हैं। देव, मनुष्य और मोक्ष संबंधी सुख उसके हस्तगत हो जाते हैं।'
१ मूलशुद्धि प्रकरण-सं० अमृतलाल भोजक, प्रकाशक-प्राकृत ग्रन्थ
परिषद्, अहमदाबाद-९।। २. जैन साहित्य बृहद् इतिहास, पृ० १९३ ॥ ३. सम्मत्तदायगाणं दुप्पडियारं भवेसु बहुएसु । सम्वगुणमे लियाहि वि उवयार सहस्स कोडीहिं ॥
ला गाथा २६९ ॥ ४. सम्ममि उवलद्धे टाइयाई नरयतिरियदाराई । दिव्याणि माणुसाणि य मोक्ख सुहाई सहीणाई ॥
-उपदेशमाला, गाथा २० ॥