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अध्याय २
सम्यक्त्व में दृढ़ता स्थिरता है एवं जिनशासन की नाना प्रकार के उत्सव महोत्सव करके प्रभावना करना प्रभावना है।'
. अब अष्टम लक्षण अधिकार का कथन करते हैं-१. उपशम, २. संवेग, ३. निर्वेद, ४. अनुकंपा और आस्तिक्य-ये सम्यक्त्व के पांच लक्षण है ।'
इन पांच लक्षणों का विवेचन आगे किया जा चुका है अतः यहाँ पुनरूक्ति नहीं करते । .
अब नवमें षविध यतना का कथन ग्रन्थकार करते हैं
जो अन्ततीर्थियों को अन्यतीर्थियों के देवादिकों को, और जो अन्यतीर्थियों द्वारा ग्रहण किये गए चैत्यादिक के प्रति छः प्रकार का व्यवहार न करे वह छः प्रकार की यतना कहलाती है । वह छः प्रकार की यतना है
मिथ्या दृष्टि के साथ वंदन, नमस्कार, दान, अनुप्रदान न करे तथा आलाप और संलाप न करे-यह छः प्रकार की यतना है ।' : आगे इनका स्वरूप कहते हैं
• हाथ जोड़कर सिर नमाकर और पूजन करना यहाँ वंदन का अभिप्राय है तथा स्तवन कीर्तन आदि वचन के द्वारा परम प्रीति युक्त नमस्कार करना है । १. भत्ती आयरकरणं जहुच्चियं जिणवरिंदसाहूण ।
थिरया दढसम्मत्तं पभावणुस्सप्पणाकरणं ॥ गाथा ४२ ॥ २: लक्खिजइ सम्मत्तं हिय यगयं जेहि ताई पंचेव । .. उवसम संवेगो तह निव्वेयणुकपे अत्थिक्कं ।। गाथा ४३ ।। ३ परतित्थियाण तदेवयाण तग्गहिय चेइयाणं च ।
जं छव्विहवावारं न कुणइ सा छव्धिहा जयणा ॥ गाथा ४६ ॥ ४ वंदनमसणं वा दाणाणुपयाणमेसि वजई ।
आलावं सलावं पुध्वमणालत्तगो न करे ।। गाथा ४७ ॥ ५.वंदणयं करजोडणसिरनामण पूयणं च इह नेयं ।
वायाइ नमुक्कारो नमसणं मणपसाओ अ ॥ गाथा ४८ ॥