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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप . अशन, पान, खादिम और स्वादिम तथा शय्यादिक का दान मिथ्या दृष्टि को नहीं देना चाहिये यह तृतीय यतना है एवं वही अनेक बार देना यह अनुप्रदान चौथी यतना है ।'
स्नेहयुक्त सम्भाषण में कुशल एवं स्वागत करना यह मिथ्यादृष्टि के साथ न करना आलाप यतना है तथा उससे सुख दुःख, गुण, दोष की पृच्छा पुनः पुनः करना यह संलाप है, इसका त्याग करना यतना है । इस प्रकार इन छः यतनाओं के पालन से सम्यक्त्वं की विशुद्धि होती है ।
अब दशम “आगारषट्क अधिकार कहते हैं
सम्यग्दर्शन में अर्थात् जिनशासन में अपवाद रूप भंग के रक्षार्थ छः प्रकार के कहे गये हैं । इन अपवादों को आगार संज्ञा यहाँ दी गई है। ये छः प्रकार के हैं. १. राजाभियोग, २. गणाभियोग, ३. बलाभियोग, ४. देवाभियोग, ५. कान्तारवृत्ति, ६. गुरुनिग्रह-ये छः आगार हैं।
अब इनका ग्रन्थकार विवेचन करते हैं-'
१. राजा अर्थात् जो नगर का स्वामी है वह तथा जो मनुष्यों का समुदाय है वह गण कहलाता है। पराक्रमयुक्त बलवान् है उसे बल कहते हैं । सुर अर्थात् शुद्रदेव इनके साथ वंदनादि छः यतना व्यवहार कर सकते हैं। १. गउरवपिसुणं वियरण मिटासणपाणखजसिन्जाणं ।
तं चिय दाणं बहुसो, अणुप्पयाणं मुणी बिंति ॥ गाथ। ४९ ॥ २. सप्पणयं संभासणकुसलं वो साग यं व आलायो ।
संलावो पुणुरुत्तं सुहदुहगुणदोसपुन्छाओ || गाथा ५० ।। ३. आगारा अबवाया छ चिय कीरंति भंगरक्खट्टा ।
रायगणबलसुरक्कमगुरु निग्गहवित्तिकंतारं ॥ गाथा ५१ ॥ ४. राया पुराइसामी, जणसमुदाओ गणो बलंबलिणो। . कारंति बंदणाई कस्सवि एए तह सुरावि | गाथा ५२ ।।