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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप ४. नैमित्तिक-जो निमित्तादि कार्यों में निपुण है उसे नैमित्तिक कहा है।' ५. तपस्वी-जो जिनमत में प्ररूपित विशिष्ट तप को करता है वह
तपस्वी कहलाता है। ६. विद्यावान्-जो अनेक विद्या, मन्त्र से युक्त सिद्ध हो एवं उचितज्ञ
हो उसे विद्यावान् कहा गया है । ७. सिद्ध-जो संघ की कार्यसिद्धि के लिए चूर्ण, अंजन, योग का
प्रयोग करता है एवं जगत् में प्रतिष्ठित है वह सिद्ध है । ८. कवि-जो सिद्धांत प्रणीत शास्त्र का प्रथन करता है, जिनशासन का ज्ञाता है सुंदर काव्य रचना करता है वह कवि है।
इस प्रकार आठ प्रभावकों का कथन करके सप्तम भूषण अधिकार का कथन किया जाता है- . ..
१. कौशल्य, . तीर्थसेवन, ३ भक्ति, ४. स्थिरता और प्रभावनाये सम्यक्त्व के पंचभूषण हैं ।
अब इनका आगे विवेचन किया है कि-वंदन, संवरादि क्रियाओं में निपुणता ही कौशल्य है । और जो तारने में समर्थ है ऐसे तीर्थ की सेवा तथा संविग्नजन का संसर्ग करना यह तीर्थसेवन है ।
जिनवरेंद्र एवं साधुओं का यथोचित आदर करना भक्ति है तथा १. वाई पमाणकुसलो, रायदुवारेऽवि लद्धमाहप्पो।
नेमित्तिओ निमित्त कजंमि पउंजए निउणं ॥ वही, गाथा ३४ ॥ २. जिणमयमभासतो विगिटखमणेहि भण्णइ तस्सी ।
सिद्धो बहुविजमतो, विजावन्तो य उचियन्नू ।। वही, गाथा ३५ ॥ ३. संघाड कजसाहग, चुण जण जोगसिद्धओसिद्वो।
भूयत्थ सत्य गन्थी, जिणसासण जाणओ-सुकई ।। वही, गाथा ३६ ॥ ४. सम्मत्तभूसणाई, कोसल्लं तित्थसेवणं भत्ती ।
थिरया पभावणा विय भावत्थं तेसि वुच्छामि || गाथा.४० ॥ ५. वन्दणसंवरणाई किरियानि उणत्तणं तु कोसल्लं । तित्थनिसेवा य सयं संविग्गजणेण संसग्गी : गाथा ४१ ॥