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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप
सामान्य से सम्यग्दृष्टि और विशेष की अपेक्षा क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगि केवली गुणस्थान तक होते हैं । '
इसी प्रकार वेदक सम्यग्दृष्टि का कथन है किवेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होते हैं ।
अब औपशमिक सम्यग्दर्शन के गुणस्थानों के प्रतिपादन के लिए सूत्र कहते हैं
उपशम सम्यग्दृष्टि जीव असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर • उपशांतकषाय- वीतराग - छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं ।
अब सासादन, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि सम्बन्धी गुणस्थानों के प्रतिपादन के लिए तीन सूत्र कहते हैं
सासादन सम्यग्दृष्टि जीव सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में ही होते हैं ।
सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव एक सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ही होते हैं ।
मिध्यादृष्टि जीव एकेन्द्रिय से लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय तक मिध्यादृष्टि गुणस्थान में होते हैं ।
१. सम्माहट्टी खइयसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्टि पहुडि जाव अजोगिकेवलति । वही, सू० १४०, पृ० ३९६ ॥
२. वेदगसम्म इट्टी असंजदसम्पाइट्टि - प्यहुडि जाव अप्पमत्त संजदा ति । सू० १४६, पृ० ३९७ ।।
३. उवसमसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्टिप्पहुडि जाब उवसंत कसाय- वीयराय-छदुमत्था ति । सृ० १४७, पृ० ३९८ ॥
४. सासणसम्म इट्टी एक्कम्मि चेय सासणसम्माइट्ठि द्वाणे । सू० १४८, पृ० ३९८ ।। ५. सम्मा मिच्छाइट्टी एक्कम्मि चेय सम्मामिच्छा इट्टिट्ठाणे । सृ० १४९, पृ० ३९९ ।।
६ मिच्छाइट्ठी एइंदिय-पहुडि जाव सण्णि-मिच्छाइट्ठिति । सू० १५०, पृ० ३९९ ॥