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अध्याय २
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• कि जिनके मूलप्रकृति और उत्तरप्रकृति के भेद से प्रकृतिबंध, स्थितिबंध,
अनुभागबंध और प्रदेशबंध अनेक प्रकार के हो जाते हैं, ऐसे आठ कर्मों का जीव से जो अत्यंत विनाश हो जाता है उसे क्षपण कहते हैं । अनन्तानुबंधी चार कषाय और तीन मोहनीय की प्रकृतियों का असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसयत जीव नाश करता है। . इस तरह क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव सातिशय अप्रमत्त गुणस्थान को प्राप्त होकर जिस समय क्षपण विधि का प्रारम्भ करता है, उस समय अधःप्रवृत्तकरण को करके क्रम से अन्तर्मुहर्त में अपूर्वकरण गुणस्थान वाला होता है । अपूर्वकरण गुणस्थान सम्बन्धी क्रिया को करके अनिवृत्ति गुणस्थान में प्रविष्ट होता है । एवं सभी कर्मप्रकृतियों का क्रमानुसार क्षय करता है। इस तरह संसार की उत्पत्ति के कारणों का विच्छेद हो जाने से इसके आगे के समय में कर्मरज से रहित निर्मल दशा को प्राप्त सिद्ध हो जाते हैं। इनमें से जो जीव कर्मक्षपण में व्यापार करते हैं उन्हें क्षपक और जो जीव कर्मों के उपशमन करने में व्यापार करते हैं उन्हें उपशमक कहते हैं ।' .: अब सम्यक्त्व मार्गणा का विश्लेषण करते हैं कि सम्यक्त्वमार्गणा के अनुवाद से सामान्य की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि और विशेष की अपेक्षा
क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशम सम्यग्दृष्टि, सासादनसम्य..ग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीव होते हैं । . यहाँ सम्यक्त्व के भेदों में सामान्य से तो एक ही एवं विशेष की अपेक्षा से छः भेदों का उल्लेख किया है। अब ये तथा प्रकार के सम्यग्दृष्टि किन-किन गुणस्थानों में होते हैं उनका कथन करते हैं१. वही, पृ. २१६ एवं २२५ ॥ २. सम्मत्ताणुधादेण अत्थि सम्माइट्ठी खइयसम्माइट्टी वेदगप्तम्माइट्टी . उवसमसम्माइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी मिच्छाइट्टी चेदि ।
- वही, मृ० १४५, पृ० ३९५ ॥