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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप उपशमन विधिः-अपने स्वरूप को छोड़कर अन्य प्रकृतिरूप से रहना अनन्तानुबन्धी का उपशम है और उदय में नहीं आना ही दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों का उपशम है क्योंकि उत्कर्षण, अपकर्षण और परप्रकृतिरूप से संक्रमण को प्राप्त और उपशांत हुई उन तीन प्रकृतियों का अस्तित्त्व पाया जाता है । अपूर्वकरण गुणस्थान में एक भी कर्म का उपशम नहीं होता है। किंतु अपूर्वकरण गुणस्थान वाला जीव प्रत्येक समय में अनन्तगुणी विशुद्धि से बढता हुआ एक-एक अन्तमुहूर्त में एक-एक स्थिति-खण्डका घात करता हुआ संख्यात हजार स्थिति-खण्डों का घात करता है । और उतने ही स्थितिबन्धापसरणा को करता है । तथा प्रति समय असंख्यात गुणित श्रेणी रूप से प्रदेशों की निर्जरा करता है । तथा जिन अप्रशस्त प्रकृतियों का बन्ध नहीं. होता है, उनकी कर्मवर्गणाओं को उस समय बन्धने वाली अन्य प्रकृतियों में असंख्यात गुणित श्रेणी रूप से संक्रमण कर देता है । इस प्रकार अपूर्वकरण गुणस्थान को उल्लंघन करके और अनिवृत्ति करण गुणस्थान में प्रवेश करके एक अन्तर्मुहूर्त पूर्वोक्त विधि करता है । तत्पश्चात् एक अन्तर्मुहूर्त काल के द्वारा बारह कषाय और नौ नोकपाय इनका अन्तरकरण करता है। अन्तरकरण विधि के हो जाने पर प्रथम से लेकर ऊपर अन्तर्मुहूर्त जाकर असंख्यातगुणी श्रेणी के द्वारा नपुंसक वेद से लेकर जब तक बादर संज्वलन लोभ रहता है तब तक अनिवृत्तिकरण गुणस्थान वाला जीव इन पूर्वोक्त प्रकृतियों का उपशम करता है । इसके अनंतर समय में जो सूक्ष्मदृष्टिगत लोभ का अनुभव करता है वह सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानवर्ती होता है । तदनन्तर अपने काल के चरम समय में सम्पूर्ण लोभ का उपशम करके उपशांतकषाय-वीतराग छद्मस्थ होता है। इस प्रकार यह मोहनीय की उपशमन विधि है।'
उपशमन विधि का कथन करके अब क्षपण विधि को कहते हैं
१. वही, पृ० २१०-२१४ ।।