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अध्याय २
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इस प्रकार " षटूखंडागम " सूत्र मैं १४ गुणस्थान, सम्यग्दृष्टि के भेद तथा वे किन-किन गुणस्थानों में होते हैं उसका कथन किया है ।
पंचसंग्रह जो कि अज्ञातकृतक है इसमें भी उन्हीं विषयों को ग्रंथकार ने स्पर्श किया है जिसे षट्खण्डागमकार ने किया है । सम्यक्त्व का स्वरूप, चौदह गुणस्थान आदि का विस्तृत विवेचन पंचसंग्रह में उपलब्ध होता है ।
(३) कसा पाहुड ( जयधवला टीका )
कसायपाहुड़ अथवा कषाय प्राभृत को पेज्ज - दोसपाहुड़, प्रेयोद्वेषप्राभृत पेज्जदोषप्राभृत भी कहते हैं । षट्खण्डागम के ही समान कषायप्राभृत का उद्गमस्थान भी दृष्टिवाद नामक बारहवाँ अंग ही है । उसके ज्ञानप्रवाद नामक पांचवें पूर्व की दसवीं वस्तु के पेज्जदोस नामक तीसरे प्राभूत से कषायप्राभूत की उत्पत्ति हुई है । इसी कारण कषायपाहुड को पेज्जदोस प्राभूत भी कहा जाता है ' ।
कषायप्राभृत के रचयिता आचार्य गुणधर है जिन्होंने गाथासूत्रों में प्रस्तुत ग्रंथ को निबद्ध किया । इनके समय का उल्लेख करते हुए जयवाकारने लिखा है कि भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् ६८३ वर्ष व्यतीत होने पर अंगों और पूर्वी का एकदेश आचार्य परम्परा से गुणधराचार्य को प्राप्त हुआ ।
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' कषायप्राभूत " में दर्शनमोह के उपशमन की चर्चा सम्यक्त्व नाम के १० महाअर्थाधिकार में की है । इस महाधिकार में औपशमिक आदि तीन सम्यग्दर्शनों में से प्रथमोपशम और क्षायिक दोनों प्रकार के सम्यग्दर्शनों की उत्पत्ति का विचार किया है । सूत्रकार कथन करते हैं कि
१. जैन साहित्य का बृहद इतिहास, भाग ५ चतुर्थ प्रकरण, पृ० ८८ ॥ २. वही, पृ० ८९ ॥