________________
दो शब्द
दर्शन धर्म का अभिन्न अङ्ग है। धर्म अथवा व्यवहार का सैद्धान्तिक पक्ष दर्शन है। यदि व्यवहार की पृष्ठ भूमि में तर्क सम्मत दर्शन नहीं है तो उस व्यवहार को स्वीकार करने में अनेक शङ्काएँ उत्पन्न होगी। वह व्यवहार चिरस्थायी नहीं होगा।
दर्शन आचार या व्यवहार का आधार है। आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र के प्रथम सूत्र में ही कहा-" सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्ष मार्गः”। मोक्ष यदि जीवन का लक्ष्य है तो उसे प्राप्त करने के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र की महती आवश्यकता है। दर्शन को परिभाषित करते हुए आचार्य उमास्वाति ने स्पष्ट निर्देश दिया है-तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यक् दर्शनम् "। भर्थात् . तत्त्व में श्रद्धा होना सम्यग्दर्शन है । तत्त्व से तात्पर्य नव तत्त्व अथवा
. मूल रूप में संसार में दो तत्त्व जीव और जड़ से है । ... सर्व प्रथम जैन दर्शन का इस तथ्य पर आग्रह है कि हम • जीव तत्त्व और जड़ तत्त्व के भेद को पहचाने । यदि जीब और जड़
के भेद ज्ञान की प्राप्ति हो गयी तो सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो गयी।
परन्तु दर्शन ज्ञान पर आधारित है । ज्ञान भी सम्यक होना चाहिये । .. किसी वस्तु. या तत्त्व को सभी पक्षों से देखने व समझने को सम्यर
ज्ञान की संज्ञा दी जाती है। जड और चेतन के भेद एवं इन दोनों के पारस्परिक सम्बन्धों को सम्यक् प्रकार से समझ लेना तथा उससे
जो हेय, ज्ञेय व उपादेय के रूप में सिद्धान्त प्रगट हों उन पर आचरण .. करना सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र हैं। . जैन दर्शन मोक्ष रूपी प्रासाद पर आरोहण हेतु प्रथम सोपान के रूप में सम्यक्त्व को अंगीकार करता है। परिणामतः सम्यक्त्व का