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का अर्थ, उस अर्थ का विकास एवं उसके महत्त्व का इतिहास यहाँ शब्दांकित किया है । जैन धर्म के मूल रूप श्रमण-परंपरा के अन्य महत्त्वपूर्ण धर्म बौद्ध धर्म में भी 'सम्यग्दर्शन' इसी समान नाम- अर्थ लिए हुए है-यह सत्य का उद्घाटन भी शायद प्रथम यहाँ ही होता है। इतना ही नहीं, वैदिक परंपरा के विविध दर्शनो में, महाभारत, भगवद् गीता और भागवत जैसे ग्रंथो में और भारत-बाह्य ईसाई एवं इस्लाम धर्म में भी सम्यग्दर्शन के समानार्थक विभावों का यहाँ विश्लेषण किया गया है। . अपने पी.एच. डी. के शोध-निबंध के रूप में प्रस्तुत ग्रन्थ साध्वीजीने लिखा है । शोध-निबंध के रूप में इसका महत्त्व है ही, किन्तु इस ग्रंथ का अधिक महत्त्व इस में है कि इससे हमें पता चलता है कि जगत् भर के धर्मों में कितने समान भाव, समान तत्त्व बिखरे पड़े है। यह शोध-प्रबंध अनायास ही सर्व धर्म-दर्शन के समन्वय के प्रति एक कदम आगे बढ़ने का कार्य करता है । इसलिए भी साध्वीजी धन्यवाद के पात्र है । हो सकता है साध्वीजीने केवल संशोधनात्मक बुद्धि से ही नहीं, श्रद्धापूत धर्म बुद्धि से यह ग्रन्थ लिखा है इसका यह सुपरिणाम है । इसी तरह हमें जैन धर्म के अन्य सिद्धांतो का भी विश्लेषण कर के, अन्य धर्मों के सिद्धांतों से उनकी तुलना कर के, समान तत्त्वों की खोज करनी चाहिए ।
र. म. शाह १०-१-१९८८.
प्राकृत विभाग गुजरात विश्वविद्यालय,
अहमदाबाद