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प्रस्तुति
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सम्यक्त्व- सम्यग्दर्शन की विभावना जैन धर्म-दर्शन की एक प्राचीन एवं महत्त्वपूर्ण विभावना है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की त्रिपुटि को जैन धर्म में रत्नत्रयी के नाम से पहचाना जाता है । कर्मों से आत्यन्तिक मुक्ति पाना ही यहाँ मोक्ष है। ऐसे मोक्ष की मंजिल तक पहुँचने के तीन अमूल्य रत्न रूप सोपान होने से रत्न - त्रयी का नाम सार्थक है, एवं उसका महत्त्व भी स्वयं प्रतीत है । इन तीन में से प्रथम सम्यग्दर्शन की विभावना का अध्ययन इस महानिबंधरूप ग्रन्थ का विषय है ।
जैन दर्शन में सम्यग्दर्शन के अर्थ का विकास वाचक उमास्वाति के ' तत्त्वार्थाधिगमसूत्र' में अपनी चरम परिणति को प्राप्त होता है, तब से उसका अर्थ 'विवेकपूत श्रद्धा' निर्धारित हो जाता है । आशा और श्रद्धा ये दो मनोभाव मनुष्य जाति को प्रकृति से प्राप्त अद्भुत भेंट है। आशा जहाँ मनुष्य को प्रगति करने में प्रेरणा देती है, वहाँ श्रद्धा उस को अपने कार्य में आगे बढने का निश्चय प्रदान करती है। कर्म क्षेत्र हो या धर्म क्षेत्र - श्रद्धा के बिना मनुष्य आगे बढ़ नहीं सकता । धर्ममार्ग - अध्यात्ममार्ग में प्रयाण करने वाले के लिए आत्मतत्त्व में श्रद्धा प्रथम आवश्यक है । आत्म तत्त्व में श्रद्धा यानि सत्य में श्रद्धा, सत्य में श्रद्धा यानि सदाचरण में श्रद्धा । सदाचरण मैं श्रद्धा जागृत होने से मनुष्य सन्मार्ग में दृढ़ होता है, स्थिर होता है, विचलित नहीं होता । श्रद्धा का पाथेय सन्मार्ग में चलने वाले के चरणों में बल पूरता है । इस तरह श्रद्धा प्रत्येक धार्मिक जन की, प्रत्येक आध्यात्मिक मार्ग के प्रवासी की प्रथम आवश्यकता सिद्ध होती है । इस महानिबंध में हम देखते हैं कि किस तरह श्रद्धा तत्त्व जैन धर्म में ही नहीं, अपितु सर्व भारतीय धर्म-दर्शनों में प्रतिष्ठित है ।
साध्वीजी सुरेखाश्रीजीने सुचारु रूप से जैन धर्मदर्शन में सम्यक्त्व