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________________ अध्याय २. ११९ - दर्शनमोहनीय की प्रकृतियों के सर्वथा विनाश से जीव क्षायिक सम्यदृष्टि कहा जाता है' । पूर्वोक्त सात प्रकृतियों के उपशम से जीव उपशम सम्यग्दृष्टि होता है तथा जिसकी सम्यक्त्व संज्ञा है ऐसी दर्शनमोहनीय कर्म की भेदरूप प्रकृति के उदय से जीव वेदक सम्यग्दृष्टि कहलाता है' इनमें क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव कभी मिध्यात्व को प्राप्त नहीं होता है, किसी प्रकार के संदेह को भी नहीं करता है और मिथ्यात्वजन्य अतिशयों को देखकर विस्मय को भी प्राप्त नहीं होता है । उपशम सम्यग्दृष्टि जीव भी इसी प्रकार का होता है, किंतु परिणामों के निमित्त से उपशम सम्यक्त्व को छोड़कर मिथ्यात्व को प्राप्त करता है । कभी सासादन, कभी सम्यग्मिथ्यात्व और कभी वेदक सम्यक्त्व को भी प्राप्त कर लेता है । जो वेदक सम्यग्दृष्टि जीव है वह शिथिल श्रद्धानी होता है, जिस प्रकार वृद्धपुरुष अपने हाथ में लकडी को शिथिलतापूर्वक पकड़ता है उसी प्रकार वह भी तत्त्वार्थ के विषय में शिभिलग्राही होता है । अंतः कुहेतु और कुदृांत से उसे सम्यक्त्व की विराधना करने में देर नहीं लगती । पूर्वोक्त सूत्र में जो सम्यदृष्टि पद है, वह गंगा नदी के प्रवाह के समान ऊपर के समस्त गुणस्थानों में अनुवृत्ति को प्राप्त होता है । १. समीची दृष्टिः श्रद्धा यस्यासौ सम्यग्दृष्टि, असंयतश्चासौ सम्यग्दृष्टिश्च, असंयत सम्यग्दृष्टिः । सो वि सम्माइट्ठी तिविहो, खइय वेदय उवसम सम्माट्ठी चेदि । दंसण-चरण गुण घाइ चत्तारि अणंतानुबंधिपडीओ, मिच्छत्तसम्मत्त सम्मामिच्छत्तमिदि तिष्णि दंसणमोहपयडीभो च एदासि सत्तण्हं णिरवसेसक्खपण खइयसम्माइट्ठीं उच्चइ । ।। वही, पृ० १७१ ॥ २. पदासि सत्तण्हं पयडीणमुवसमेण उवसमसम्माइट्ठी होइ । सम्मन्तसण्णि- दंसण-मोहणीय-भेय कम्मस्स उदएण वेदयसम्माइट्टीणाम | ॥ वही ॥ ३. वही, पृ० १७१ - १७२ ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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