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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप अर्थात् पांचवें आदि समस्त गुणस्थानों में सम्यग्दर्शन पाया जाता है।' चौथे गुणस्थान का निरूपण कर अब आगे पांचवें के लिए कहा हैसामान्य से संयतासयत जीव होते हैं ।
जो संयत होते हुए भी असंयत होते हैं उन्हें संयतासंयत कहते हैं । टीकाकार इस पर हुई शंका का कथन करते हैं कि जो संयत होता है वह असंयत नहीं हो सकता है, और जो असंयत है वह संयत नहीं हो सकता है, क्योंकि संयमभाव और असंयमभाव का परस्पर विरोध है। इसलिये वह गुणस्थान नहीं बनता है। उसका समाधान करते हुए कहा कि-दो विरुद्ध धर्मों की उत्पत्ति का कारण यदि समान अर्थात् एक मान लिया जाय तो विरोध आता है परंतु संयमभाव और असंयमभाव इन दोनों को एक आत्मा में स्वीकार कर लेने पर कोई विरोध नहीं आता है, क्योंकि उन दोनों की उत्पत्ति के कारण भिन्न-भिन्न है। संयमभाव की उत्पत्ति का कारण त्रस हिंसा से विरति भाव है और असंयत भाव की उत्पत्ति का कारण स्थावर हिंसा से अविरतिभाव है। इसलिये संयतासंयत नामक पांचवा गुणस्थान बन जाता है। __अब संयतों के प्रथम गुणस्थान का निरूपण करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं
सामान्य से प्रमत्तसंयत जीव होते हैं। प्रकर्ष से मत्त जीवों को प्रमत्त कहते है और अच्छी तरह से विरत या संयम को प्राप्त जीवों को संयत कहते हैं। जो प्रमत्त होते हुए भी संयत होते हैं उन्हें प्रमत्त संयत कहते हैं।' १. एदं सम्माइटि-वयणं उवरिम-सध्व-गुणटाणेसु अणुवट्टर गंगा-गई
पवाहोव्व । पृ० १७३ ।। २. संजदा-संजदा । ३। संयताश्च ते असंयताश्च संयता-संयताः। वही॥ ३. वही, पृ० १७३-१७४ ॥ ४. पमत्तसंजदा । १४ । प्रकर्षेण मत्ताः प्रमत्ताः, सं सम्यग् यताः विरताः
संयताः । प्रमत्ताश्च ते संयताश्च प्रमत्तसंयताः । वही, पृ० १७५-१७६ ।।