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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप ___दृष्टि, श्रद्धा, रुचि और प्रत्यय ये पर्यायवाची नाम हैं। जिस जीव के समीचीन और मिथ्या दोनों प्रकार की दृष्टि होती है उसको सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहते हैं।'
यहाँ शंका होती है कि एक जीव में एक साथ सम्यक् और मिथ्यारूप दृष्टि संभव नहीं है, क्योंकि इन दोनों दृष्टियों का एक जीव में एक साथ रहने में विरोध आता है। यदि यह कहा जावे कि ये दोनों दृष्टियाँ क्रम से एक जीव में रहती हैं तो उनका सम्यग्दृष्टि
और मिथ्यादृष्टि नाम के स्वतंत्र गुणस्थानों में ही अन्तर्भाव मानना चाहिये । अतः सम्यग्मिथ्यादृष्टि नामक तीसरा गुणस्थान नहीं बनता है। इसका समाधान करते हुए टीकाकार कहते हैं कि-युगपत् समीचीन और असमीचीन श्रद्धा वाला जीव सम्यग्मिध्यादृष्टि है ऐसा मानते हैं। और ऐसा मानने में विरोध भी नहीं आता है, क्योंकि आत्मा अनेक धर्मात्मक है, इसलिए उस में अनेक धर्मों का सहानवस्थान लक्षण विरोध असिद्ध है।
अब चौथे गुणस्थान के निरूपण के लिए कहते हैं कि- . सामान्य से असंयतसम्यग्दृष्टि जीव होते हैं
यहाँ टीकाकार कहते हैं कि-जिसकी दृष्टि अर्थात् श्रद्धा समीचीन होती है उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं, और संयमरहित सम्यग्दृष्टि को असंयतसम्यग्दृष्टि कहते हैं । वे सम्यग्दृष्टि जीव तीन प्रकार के हैंक्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टि और औपशमिक सम्यग्दृष्टि । सम्यग्दर्शन और सम्यकूचारित्र गुण का घात करनेवाली चार अनन्तानुबंधि प्रकृतियां और मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यक् मिथ्यात्व इन तीन १. दृष्टिः श्रद्धा रुचिः प्रत्यय इति यावत् । समीचीना च मिथ्या च
दृष्टिर्यस्यासौ सम्यग्मिथ्याष्टिः । वही || २. वही, पृ० १६६-६७ ॥ ३. असंजदसम्माइट्टी । गाथा १२, पृ० १७० ॥