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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान का अभाव हो जायगा ?' इस शंका का समाधान करते हुए कहा-यह कहना शुद्ध निश्चय नय के आश्रय करने पर ही सत्य कहा जा सकता है । अथवा तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं। इसका अर्थ यह है कि आप्त आगम और पदार्थ को तत्त्वार्थ कहते हैं और उनके विषय में श्रद्धान अर्थात् अनुरक्ति करने को सम्यग्दर्शन कहते हैं। यहाँ पर सम्यग्दर्शन लक्ष्य है तथा आप्त, आगम और पदार्थ का श्रद्धान लक्षण है। .
यहाँ शंकाकार शका करते हैं पूर्वकथित लक्षण में और इस लक्षण में विरोध क्यों न माना जाय अर्थात् इन दोनों लक्षणों में भिन्नता है। इसका समाधान करते हुए कहा कि-इस में कोई दोष नहीं है, क्योंकि शुद्ध और अशुद्ध नय की अपेक्षा से ये दोनों लक्षण कहे गये हैं। पूर्वोक्त लक्षण शुद्ध नच की अपेक्षा से, तत्त्वार्थ श्रद्धान रूप लक्षण अशुद्ध नय की अपेक्षा से कहे गये हैं। इसलिए इन दोनों लक्षणों के कथन में दृष्टिभेद होने के कारण कोई विरोध नहीं आता है। अथवा तत्त्वरुचि को सम्यक्त्व कहते हैं। यह लक्षण अशुद्धतर नय की अपेक्षा से जानना चाहिये। ___. यहाँ विभिन्न सम्यक्त्व के लक्षण जो कि पूर्वग्रन्थों में आ चुके हैं, उनका भी स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि इन लक्षणों में परस्पर विरोध नहीं है किन्तु शुद्ध-अशुद्ध और अशुद्धतर नय की अपेक्षा से ये लक्षण कहे गये हैं। १. प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं सम्यक्त्वम् । सत्येवमसंयत. सम्यग्दृष्टिगुणस्याभावः स्यादिति चेत्सत्यमेतत् शुद्ध नये समाश्रीय माणे ।
॥ वही, पृ० १५१ ।। २. अथवा तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । अस्य गमनिकोच्यते, आप्तागम। पदार्थस्तत्त्वार्थस्तेषु श्रद्धानमनुरक्तता सम्यग्दर्शनमिति लक्ष्यनिर्देशः ।
कथं पौरस्त्येन लक्षणेनास्य लक्षणस्य न विरोधश्चेन्नैष दोषः, शुद्धा. शुद्धनयसमाश्रयणात् । अथवा तत्त्वरुचिः सम्यक्त्वं अशुद्धतरनयसमाश्रयणात् । वही