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अध्याय २.
• अब सूत्रकर्ता आगे चौदह जीवसमासों का कथन करते हैं कि
जीवसमास चौदह हैं।' और इन चौदह जीव समासों में सत्प्ररूपणा में ओघ अर्थात् सामान्य की अपेक्षा से और आदेश अर्थात् विशेष की अपेक्षा से कथन है।' ___टीकाकार जीवसमास क्या है ? उसका कथन करते हैं कि जिस में जीव भलीप्रकार रहते हैं अर्थात् पाये जाते हैं उसे जीवसमास कहते हैं । पुन शंका होती है कि ये जीव कहाँ रहते हैं ? तो समाधान किया कि ये जीव गुणों में रहते हैं। यह गुण कौन कौन से है ? औदयिक, औपशमिक आदि ।
दर्शनमोहनीय आदि कर्मों के उदय, उपशम आदि अवस्थाओं के होने पर उत्पन्न हुए जिन परिणामों से युक्त जो जीव देखे जाते हैं उन जीवों को सर्वज्ञ देव ने उसी गुणसंज्ञावाला कहा है। ____ अब आगे ओघ अर्थात् गुणस्थान प्ररूपणा का कथन करते हैं
कि-सामान्य से गुणस्थान की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीव हैं। टीकाकार - इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि-" मिथ्यादृष्टि जीव हैं"। यहाँ पर
मिथ्या, वितथ, व्यलीक और असत्य से एकार्थवाची नाम हैं। दृष्टि " शब्द का अर्थ दर्शन या श्रद्धान है। इस से यह तात्पर्य हुआ कि १. वही । एदेसिं चेव चोदसण्हं जीवसमासाणं ...। ५ । पृ० १५३ ॥ २. संतपरुवणदाए दुविहो णिहेसो ओघेण आदेसेण य । ८ ।
॥ वही, पृ० १५९ ॥ जीवसमास इति किम ? जीवा सम्यगासतेऽस्मिन्निति जीवसमासः । क्वासते ? गुणेषु । के गुणाः ? औदयिकौपशमिकादि इति गुणा ।
|| वही टीका पृ० १६० ॥ ४. जेहि दु लक्खिजंते उदयादिसु संभवेहि भावेहि ।.
जीवा ते गुण-सण्णा णिहिट्ठा सव्वद रिसीहि ॥ वही पृ० १६१ ॥ ५. ओघेण अस्थि मिच्छाइट्ठी ।९। वही ॥ . .. ६. मिथ्या वितथा व्यलीका असत्या दृष्टिदर्शनं विपरीतैकान्तविनयसंशयाज्ञानरूपमिथ्यात्वकर्मोदय जनिता येषां ते मिथ्यादृष्टयः ।।
.. | टीका पृ० १६२ ॥