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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप द्वारा कहे हुए पदार्थों को तत्त्वार्थ कहते हैं।' उपर्युक्त कथन से हमें ज्ञात होता है कि कुन्दकुन्दाचार्य ने यहाँ देव, आगम अर्थात् शास्त्र या निर्ग्रन्थ प्रवचन तथा हिंसारहित धर्म के श्रद्धान को भी सम्यग्दर्शन स्वीकार किया है । अर्थात् देव धर्म तत्त्व व आगम इन तीनों के श्रद्धान को यहाँ स्वीकार किया है । एवं साथ ही विपरीत अभिनिवेश से रहित श्रद्धान तथा चल मलिन व अगाढ़ दोषों से रहित श्रद्धान को भी सम्यक्त्व स्वीकार किया है। सम्यक्त्व ही निर्वाण का प्रथम चरण तो है ही सुगति का भी कारण है। रयणसार में कहा है-नियम से सम्यक्त्व से सुगति एवं मिथ्यात्व से दुर्गति होती है। एवं जों स्वतत्त्वोपलब्धि को प्राप्त नहीं है वह सम्यक्त्वोपलब्धि को प्राप्त नहीं कर सब ता । सम्यक्त्वोपलब्धि बिना निर्वाण भी प्राप्त नहीं कर सकता।
सम्यक्त्व के माहात्म्य का कथन करते हुए कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं कि-जैसे वृक्ष की जड़ से शाखा, पुष्प आदि परिवार वाला तथा बहुगुणी स्कन्ध उत्पन्न होता है वैसे ही श्रद्धान को जिन धर्म में मोक्ष मार्ग का मूल कहा है।
लोक में जीवरहित शरीर को मुर्दा कहते हैं किन्तु जो सम्यग्दर्शन से रहित है वह चलता फिरता मुर्दा है।' १. तस्स मुहग्गदवयणं पुत्वावरदोसविरहियं सुद्धं । । आगमिदि परिकहियं तेण दु कहिया हवंति तच्चत्था ॥
-नियमसार गाथा ८॥ २. नियमसार, गाथा ५१, ५२, ५३, ५४ ॥ ३. रयणसार
सम्मत्तगुणादो सुगइ मिच्छादो होइ दुग्गइ णियमा । गाथा ६६ ॥ णियतच्चुवलद्धि बिणा सम्मत्तुवल द्धि णत्थि णियमेण ।
सम्मत्तुवलद्धि विणा णियाणं णत्थि जिणुदिट्ठ ।। गाथा ९० ॥ . ४ जह मूलाओ खंधो साहा परिवार बहुगुणो होइ ।
तह जिणंदसणमूलो णिदिदट्ठो मोक्खमग्गस्स ॥ द. प्रा: गाथा ११ ॥ ५. जीवविमुक्को सवओ दसणमुक्को य होइ चलसवओ।
भाव-प्राभृत, १४१ ॥