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________________ अध्याय २ निश्चय नय से उन्होंने आत्म श्रद्धान को महत्त्व दिया है। समयसार एवं पंचास्तिकाय में भी अपने इसी मत को पुष्ट किया है । किन्तु समय सार में तो आत्मा के अलावा इन अन्य तत्त्वों के श्रद्धान का जो निश्चय नय से श्रद्धान करता है उसे भी सम्यग्दर्शन कहा है।' किन्तु मोक्ष प्राभृत में और नियम सार में इसने कुछ और ही रूप धारण कर लिया है। मोक्ष प्राभृत में कहा है-हिंसारहित धर्म में अट्ठारह दोषों से रहित देव में और निन्थ प्रवचन में श्रद्धान करना सम्यक्त्व है। नियमसार में इनके स्वरूप का भी कथन किया है कि–आप्त, आगम और तत्त्वों के श्रद्धान से सम्यग्दर्शन होता है तथा समस्त दोषों से रहिन और समस्त गुणमय आप्त होते हैं। वे अट्ठारह दोष कौन-कौन से हैं जिन से रहित देव अर्थात् आप्त हैं, उनका कथन किया है कि-क्षुधा, तृषा, भय, रोष, राग, मोह, चिंता, वृद्धत्व, रोग, मृत्यु, स्वेद-पसीना, खेद, मद, रति, आश्चर्य, निद्रा, जन्म और उद्वेग यह अट्ठारह दूषण है।' . अब आगम और तत्त्व के स्वरूप को कहते हैं कि उस परमात्मा के मुख से निकले हुए वचन, पूर्वापर दोष से · रहित और शुद्ध होते हैं उसे आगम कहते हैं तथा उस आगम के १. समयसार-भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीया य पुण्ण पावं च । • आसव संवर णिज्जर बन्धो मोक्तो य सम्मत्तं ॥ ___-गाथा १३.१, एवं गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा ५६० ॥ २. हिंसारहिय धम्मे अटठारह दोस वज्जिए देवे । निग्गंथे पव्वयणे सद्दहणं होइ सम्मत्तं ॥ मोक्ष प्राभृत गाथा ९० ॥ ३. अत्तागममतच्चाणं सदुदहणादो हवेइ सम्मत्तं ।। ववगयअसेसदोसो सयलगुणप्या हवे अत्तो॥ नियमसार गाथा ५ ॥ ४. छुह-तण्ह-भीरू-रोसो रागो मोहो चिंता जरा रूजा मिच्चू । सेद-खेद मदो रइ विण्हिय णिददा जणुव्वेगो || नियमसार गाथा ६ ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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