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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप दिगम्बर जैन परम्परा में कुन्दकुन्द द्वारा रचित साहित्य को ही आद्य मान्य करते हैं। वैदिक धर्म में उपनिषदों को जो स्थान प्राप्त है वही स्थान दिगम्बर जैन परम्परा में कुन्दकुन्द के साहित्य का है। विद्वान् उनके प्राभतों को जैन उपनिषद् मानते हैं। इनके ग्रन्थों को पाहुड़ कहते हैं। यथा-समय पाहुड़, षट् पाहुड़, प्रवचन पाहुड़ आदि ।
__ आचार्य कुन्दकुन्द ने जैन तत्त्वों का निरूपण वा. उमास्वाति की तरह मुख्यतः आगम के आधार पर नहीं किंतु तत्कालीन दार्शनिक . विचारधाराओं के प्रकाश में आगमिक तत्त्वों को स्पष्ट किया है।' . कुन्दकुन्दाचार्य रचित ग्रन्थों में सम्यक्त्व विषयक विचार व विकास हम समन्वय रूप से देखेंगे । दर्शन प्राभृत आदि षट् प्राभृत, समयसार, नियमसार, प्रवचनसार, रत्नसार, . पंचास्तिकाय आदि ग्रन्थों में । सम्यक्त्व विषयक उल्लेख मिलता है । दर्शन पाहुड़ में कहा है
छः द्रव्य, नौ पदार्थ, पाँच अस्तिकाय और सात तत्त्व जिनोपदिष्ट है। जो उनके यथार्थ स्वरूप का श्रद्धान् करता है, उसे सम्यग्दृष्टि जानना चाहिये । किन्तु जीव आदि पदार्थों के श्रद्धान को व्यवहारनय से सम्यग्दर्शन कहा है किन्तु निश्चयनय से आत्मा ही सम्यग्दर्शन है ।
___ यहाँ हमारा ध्यान आकर्षित होता है कि " तत्त्वार्थसूत्र" के प्रणेता उमास्वाति ने “तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शन" कहा, वहाँ, कुन्दकुन्दाचार्य ने सप्त तत्त्वों के साथ छः द्रव्य, नौ पदार्थ, पाँच अस्तिकाय एवं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा । साथ ही यह श्रद्धान व्यवहार नय की अपेक्षा से कहा गया है। किन्तु १. न्यायावतारवार्तिक वृत्ति, प्रस्ता०, पृ० १०३ ।। २. दर्शनप्राभूत-छदव्व णव पयत्था पंचत्थी सत्त तच्च णिदिदट्ठा । सदहइ ताण रूवं सो सद्दिट्ठी मुणेयव्यो | गाथा १९ ॥ जीवादिसदहणं सम्मत्तं जिणवरेहि पण्णतं ।। वहारा णिच्छयदो अप्पाणं हवेइ सम्मत्तं ॥
-गाथा २० एवं समयसार गाथा २०१, २०२ ॥