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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप व पूर्वकथित अतिचारों की इस सूत्र में विस्तृत उपलब्धि होती है। सम्यग्दर्शन के विस्तार का प्रथम सोपान इस सूत्र को कहा जाय तो इस में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। श्रावक-प्रज्ञप्ति
वाचकवर्य उमास्वाति रचित दूसरा ग्रन्थ है, श्रावक-प्रज्ञप्ति । इस सूत्र में भी इन्होंने सम्यक्त्व विषयक चर्चा की है। तत्त्वार्थ-सूत्र के अतिरिक्त विशेष सम्यक्त्व का उल्लेख जो इन्होंने इस सूत्र में . किया है उसका ही विवेचन हम यहाँ करेंगे । श्रावक-प्रज्ञप्ति सूत्र की टीका आ. हरिभद्र सूरि ने की है। __सूत्रकर्ता ने कहा है कि जो सम्यग्दृष्टि जीव है वह उत्कृष्ट समाधि वाला होता है तथा जिन प्रवचन में, उसके श्रवण में उसका अत्यंत अनुराग होता है।' इसी के साथ यह सम्यक्त्व जो कि शुद्ध आत्मपरिणाम रूप है वह ग्रंथि भेद होने पर होता है। और यह सम्यक्त्व जीव और कर्म के योग से होता है। २
यह ग्रंथिभेद कब होता है ? इसका समाधान सूत्रकार करते हैं कि-आयु कर्म को छोड़कर सब कर्मों की एक कोडाकोड़ी से कम स्थिति शेष रहे तब घर्षण घोल न्याय से जीव को कभी नहीं हुआ ऐसा ग्रंथिभेद होता है । ग्रंथिभेद होने पर मोक्ष का कारण भूत जो सम्यक्त्व है उसका लाभ जीव को होता है । सम्यक्त्व प्राप्ति के पश्चात् जीव उस ग्रंथि का पुनः कर्म बन्धन से उल्लंघन नहीं करता।' १. श्रावक-प्रज्ञप्ति-होइ दढं अणुराओ जिणवयणे परमनिव्वुइकरम्मि ।
सवणाइगोयरो तह सम्मादिदहिस्स जीवस्स ॥ गा०५ ॥ २ एयस्स मूलवत्थू सम्मत्तं तं च गंठिभेयम्मि ।
खयउवसमाइ तिविह सुहायपरिणामरूवं तु ॥ श्रा०प्र०, गा० ७ ॥ जं जीवकम्मजोए जुज्जइ एयं अओ तयं पुवि ॥ वही, गा० ८ ॥ १. एवं ठिइयस्स जया घसणघोलणनिमित्तओ कह वि । खविया कोडाकोडी
सव्वा इक्क पभुत्तणं ।३१ ॥ तीइ वि य थोवमित्ते खविए इत्थंतरम्मि