SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय २ र्शनादि और जीवादि पदार्थों का ज्ञान होता है।' सिद्धसेन गणि के अनुसार सत्-सम्यग्दर्शन का अस्तित्व है या नहीं; तो कहते हैं-है। है तो, किन में है ? अजीवों में नहीं है जीवों में-किसी के है किसी के नहीं। संख्या सम्यग्दर्शन कितना है ? सम्यग्दर्शन असंख्यात् है और सम्यग्दृष्टि अनंत है। क्षेत्र-सम्यग्दर्शन कहाँ कहाँ है ? लोक के असंख्यात भाग में । स्पर्शन-लोक के असंख्यात भाग को स्पर्श करते हैं। काल-एक जीव की अपेक्षा से जघन्य से अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट से छयासठ सागरोपम एवं नाना जीवों की अपेक्षा से अर्द्धपुद्गल परावर्तन । अन्तर-विरहकाल । एक जीव की अपेक्षा से जघन्य से अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट से अर्द्धपुद्गलपरावर्तन, नाना जीवों की अपेक्षा से अन्तर विरह काल नहीं है। .. भाव-औपशमिक आदि तीन भाव । ': अल्पत्वबहुत्व-सब से कम औपशमिक सम्यग्दृष्टि है और उससे 'क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि असंख्यात् गुणा है। उससे क्षायिक सम्य ग्दृष्टि अनंतगुणा है। ... इस विषय में अकलंक व विद्यानी ने पूज्यपाद का अनुसरण किया है । इस प्रकार तत्त्वार्थ-सूत्र में सम्यक्त्व-सम्बग्दर्शन की विशद चर्चा की है। सम्यक्त्व का स्वरूप, लक्षण, उत्पत्ति, प्राप्ति के उपाय, भाव १. सदित्यस्तित्व निर्देशः । संख्याभेदगणना। क्षेत्रं निवासो वर्तमान कालविषयः । तदेव स्पर्शनं त्रिकालगोचरम् । कालोद्विविधः मुख्यो व्यावहारिकश्च । अन्तरं विरहकालः । भाव औपशमिकादिलक्षणाः। अल्पबहुत्वमन्योऽन्यापेक्षया विशेषप्रतिपत्तिः । स० सि०, पृ० २१ ।। २. सिद्ध० वृ०, पृ० ६२-६८॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy