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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप और उत्कृष्ट तेंतीस सागरोपम है, संसारी जीव के तथा मुक्त के सादि-अनन्त है । क्षयोपशम की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति छयासठ सागर है । भेद की अपेक्षा सम्यग्दर्शन सामान्य से एक है, निसर्गज और अधिगमज के भेद से दो प्रकार का, औपशमिक क्षायिक और क्षायोपशमिक के भेद से तीन प्रकार का है। शब्दों की अपेक्षा संख्यात प्रकार का और श्रद्धान करने योग्य पदार्थों की अपेक्षा अनंत प्रकार है।
इस प्रकार निर्देश आदि उपायों का कथन करने के पश्चात् अन्य और भी जो जीवादिपदार्थों के ज्ञान के उपाय हैं उन का सूत्रकर्ता कथन करते हैं कि-" सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्च", अर्थात् सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पत्वबहुत्व से भी सम्यग्दर्शन आदि विषयों का ज्ञान होता है।
सत् अस्तित्व का सूचक है। संख्या से भेदों की गणना ली है। वर्तमानकाल विषयक निवास को क्षेत्र कहते हैं । त्रिकाल विषयक निवास को स्पर्शन कहते हैं। काल दो प्रकार का है-मुख्य और व्यावहारिक । विरहकाल को अन्तर कहते हैं। भाव से औपशमिक आदि भावों का ग्रहण किया गया है और एक दूसरे की अपेक्षा न्यूनाधिक का ज्ञान करने को अल्पत्वबहुत्व कहते हैं । इस प्रकार सत् आदि के द्वारा सम्यग्द
१. वही, बाह्य लोकनाडी सा एकरज्जुविष्कम्भा चतुर्दशरजवायामा । स्थितिरौपश मिकस्य जघन्योत्कृष्टा चान्तर्मोहूर्तिकी। क्षायिकस्य जघन्यान्तमौहूर्तिकी । उत्कृष्टा त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणिा क्षायोपशमिकस्य उत्कृष्टा षट्पष्टिसागरोपमाणि। विधानं सामान्यादेकं, द्वितयं निसर्गजाधिगमजभेदात् । त्रितयं औपशमिकादिभेदात् । एवं संख्येया विकल्पाः शब्दतः । असंख्येया अनन्ताश्चभवन्ति श्रद्धांत.
श्रद्धातव्यभेदात् । २. त० सू०, प्रथम अध्याय, सू० ८॥