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अध्याय २
अन्य उपायों का भी ग्रन्थकार उल्लेख करते हैं
" निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः ”—अर्थात् निर्देश, स्वामित्व, साधना, अधिकरण, स्थिति और विधान से सम्यग्दर्शन आदि विषयों का ज्ञान होता है।'
. किसी वस्तु के स्वरूप का कथन करना निर्देश है । यथा-सम्यग्दर्शन क्या है ? एसा प्रश्न होने पर जीवादि पदार्थों का श्रद्धान करना सम्यरदर्शन है" ऐसा कथन करना निर्देश है अथवा नामादिक के द्वारा सम्यग्दर्शन का कथन करना निर्देश है। स्वामित्व का अर्थ है आधिपत्य । सम्यग्दर्शन किसके होता है ?. सामान्य से जीव के और विशेष की अपेक्षा गति एवं मार्गणा के अनुसार होता है। जिस निमित्त से वस्तु उत्पन्न होती है वह साधन है। साधन दो प्रकार के हैं-अभ्यंतर और बाह्य । दर्शनमोहनीय उपशमादि अभ्यंतर एवं जातिस्मरण, धर्मश्रवण अथवा वेदनाभिभव, जिनमहिमादर्शन, देवऋद्धि दर्शनादि बाह्य कारण हैं।
अधिष्ठान या आधार अधिकरण है । अधिकरण के दो प्रकार है अभ्यंतर और बाह्य । अभ्यंतर अधिकरण-जिस सम्यग्दर्शन का जो खामी. है वह । और बाह्य अधिकरण लोकनाड़ी है, जो कि एक राजु चौड़ी और चौदह राजु लम्बी है। स्थिति-औपशमिक सम्यग्दर्शन की जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। क्षायिक की जघन्य अन्तर्मुहूर्त १. त० सू०, अध्याय १, सू० ७॥ . २. निर्देशः स्वरूपाभिधानम् । स्वामित्वमाधिपत्यम् । साधनमुत्पत्ति
निमित्तम् । अधिकरणमधिष्ठानम् । स्थितिः कालपरिच्छेदः । तत्र सम्यग्दर्शन किमिति प्रश्ने तत्वार्थश्रद्धानमिति निर्देशो नामादिर्वा कस्येत्युक्ते सामान्येन जीवस्य । विशेषेण गत्युवादेन । साधनं द्विविधं अभ्यन्तरं बाह्य च । अभ्यन्तरं दर्शनमोहस्योपशम: क्षयः क्षयोपशमो वा । बाह्यं साधनं केषाचिजातिस्मरणं केषाचिंद्धर्मश्रवणं केषांचिद्वेदनाभिभवः केषांचिजिनबिम्बदर्शनं, केषांचिजिनमहिमा दर्शनं केषांचिदेवद्धिदर्शनम् । अधिकरणं द्विविधं अभ्यन्तरंबाह्य च। अभ्यंतर स्वस्वामिसंबन्धार्ह एव आत्मा । स०सि०, पृ० १६ से २० ॥