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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप । यहाँ हमें स्पष्ट प्रतीत होता है कि मूलकारण सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति का दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम, क्षय और क्षयोपशम है । तब निसर्गज एवं अधिगमज रूप सम्यग्दर्शन हो सकता है। भाष्य के वृत्तिकार इसका विश्लेषण करते हुए कहते हैं-निसर्ग, परिणाम, स्वभाव
और परोपदेशादिक का अभाव, ये सब एकार्थवाचक है। अनादिकाल से भ्रमण करते हुए यह जीव स्वकृत कर्मों के बंध के अनुसार चारों गतियों में पुण्य पाप रूप फल का अनुभव करता हुआ ज्ञान और दर्शन के उपयोग से एवं स्वभाव से तथा उत्पन्न परिणाम व अध्यवसाय से मिथ्यादृष्टि के अपूर्वकरण ऐसा होता है जिसके द्वारा परोपदेश बिना स्वयं सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है वही निसर्गज सम्यग्दर्शन है । और अधिगम परोपदेश, अभिगम, आगम, मिमित्त, श्रवण, शिक्षा ये सब समानार्थक है। इनके द्वारा जो तत्त्वार्थश्रद्धान उत्पन्न होता है वह अधिगमज सम्यग्दर्शन है ।' अकलंक व विद्यानन्दी ने भी यही स्वीकार किया है।
अब ग्रन्थकार कथन कर रहे हैं कि इन जीवादि पदार्थों का तथा सम्यग्दर्शन के स्वरूप का ज्ञान किसके द्वारा होता है ? तो कहा" प्रमाणनथैरधिगमः' अर्थात् प्रमाण और नयों से पदार्थों का ज्ञान होता है । १. निसर्ग: परिणामः स्वभावः अपरोपदेश इत्यनन्तरम् । तस्यानादौ
संसारे परिभ्रमतः कर्मत एव कर्मणः स्वकृतस्य बन्धनिकाचनोदयनिर्जरापेक्ष नारकतिर्यग्योनिमनुष्यामरभवग्रहणेषु विविधं पुण्यपापफलमनुभवतो ज्ञान दर्शनोपयोगस्वाभाव्यात तानि तानि परिणामाध्यवसायस्थानान्तराणि गच्छतोऽनादिमिथ्यादृष्टेरपि सत परिणामविशेषादपूर्वकरणं ताग्र भवति येनास्यानुपदेशात् उत्पद्यते निसर्गसम्यग्दर्शनम् । अधिगमः अभिगम आगमो निमित्तं श्रवणं शिक्षा उपदेश इत्यनर्थान्तरम् । तदेवं परोपदेशात् यत् तत्वार्थश्रद्धानं
भवति तदधिगम सम्यग्दर्शनमिति-सिद्ध० वृ०, पृ० ३५ ।। २. त० सू०, प्रमाणनयैरधिगमः । अध्याय १, सू० ६॥