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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप कई आचार्यों ने कहा है कि पदार्थ नौ हैं, उनमें पुण्य और पाप भी है अतः उनको भी ग्रहण करना चाहिये । इस प्रकार शंकाकारों की शंका का समाधान करते हुए पूज्यपाद कहते हैं कि-पुण्य
और पाप का ग्रहण नहीं करना चाहिये, क्योंकि उनका आस्रव और बन्ध में अन्तर्भाव हो जाता है। पुनः शंकाकार शंका करते हैं कि "यदि ऐसा है तो सूत्र में अलग से आस्रव आदि का ग्रहण करना निरर्थक है, क्योंकि उनका जीव और अजीव में अन्तर्भाव हो जाता है"। पुनः समाधान करते हैं कि आस्रव आदि का ग्रहण करना निरर्थक नहीं है। क्योंकि यहाँ मोक्ष का प्रकरण है इसलिये उसका कथन करना आवश्यक है । आस्रव चुकि संसार पूर्वक होता है और संसार के प्रधान कारण आस्रव और बन्ध हैं. तथा मोक्ष के प्रधान कारण संवर और निर्जरा है अतः प्रधान हेतु, हेतु वाले और उनके फल को दिखलाने के लिए अलग-अलग कथन किया है।' सिद्धसेन, अकलंक व विद्यानन्दी ने इसका समर्थन कर विस्तार से इसका विवे. चन किया है।
जीवादि पदार्थों को विषय करने वाला यह सम्यग्दर्शन किस प्रकार उत्पन्न होता है उसका कथन करते हुए सूत्रकार ने कहा- "तन्निसर्गादधिगमाद्वा" अर्थात् वह सम्यग्दर्शन निसर्ग और अधिगम से उत्पन्न होता है ।
यहाँ निसर्ग का अर्थ स्वभाव है और अधिगम का अर्थ है १. इह पुण्यपापग्रहणं कर्तव्यम् । नवः पदार्थाः इत्यन्यैरप्युक्तत्वात् । न
कर्तव्यम् , आस्रवे बन्धे चान्तर्भावात् । यद्येवमानववादिग्रहणमनर्थकं, जीवाजीवयोरन्तर्भावात् । नानर्थकम् । इह मोक्षः प्रकृतः। सोऽवश्यं निर्देष्टव्यः । स च संसारपूर्वकः। संसारस्य प्रघानहेतुरास्रवो बन्धश्च । मोक्षस्य प्रधानहेतुः संवरो निर्जरा च । अतः प्रधान हेतुहेतुमत्फलनिदर्शनार्थत्वात्पृथगुपदेशः कृतः । स० सि० पृ० ११ ॥... २. त० स०, अध्या० १, सू० ३.