SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप भी सम्यग्दर्शन हो जावेगा। अतिव्याप्ति दोष के निवारण हेतु इनका ग्रहण किया गया है।' ____ अकलंकदेव ने भी समर्थन करते हुए आगे कहा कि यदि कोई वादी इच्छापूर्वक श्रद्धान को भी सम्यग्दर्शन कहते हैं तो यह युक्त नहीं क्योंकि मिथ्यादृष्टि भी अपने आपको बहुश्रुत दिखाने के लिए या जैन मत को पराजित करने के लिए अर्हत्तत्त्वों का झूठा ही श्रद्धान कर लेते हैं, जैनशास्त्रों को पढ़ते हैं। इच्छा के बिना तो यह हो ही . नहीं सकता। अथवा यदि इच्छा को सम्यग्दर्शन कहें तो यह तो लोभ की पर्याय है। अतः यह सम्यग्दर्शन का लक्षण हो ही नहीं सकता।' पूज्यपाद ने अन्य प्रकार से भी सम्यग्दर्शन का लक्षण किया. है-सम्यग्दर्शन दो प्रकार का है- १. सराग सम्यग्दर्शन, २. वीतराग सम्यग्दर्शन । - प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदि की अभिव्यक्तियुक्त लक्षण वाला सराग सम्यग्दर्शन है। और वीतराग सम्यग्दर्शन आत्मा की विशुद्धिमात्र है। इसका समर्थन अकलंक व विद्यानंदी करते हैं किन्तु सिद्धसेन ने पांच लक्षण माने हैं-प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्तिक्य। १. तत्वार्थश्लोकवात्तिक, द्वितीय खण्ड, गा० ३, पृ० ५ ॥ अर्थ ग्रहणतोऽनर्थश्रद्धानं विनिवारितम् । कल्पितार्थव्यवच्छेदोऽर्थस्य तत्त्वविशेषणात् ।। ३ ।. २. इच्छाश्रद्धानमित्यपरे ।२६। तदयुक्तम्, मिथ्यादृष्टेरपि प्रसंगात् ।२७। रा० वा०, पृ. २१ ॥ ३. रा. वा० अध्याय १, सू० २, श्लो० २७ पृ० २२ ॥ ४. स० सि० पृ. ७-तद् द्विविधं सराग वीतरागविषयभेदात् प्रशम: संवेगानुकम्पास्तिक्याघभिव्यक्ति लक्षणं प्रथमम् । आत्मविशुद्धि मात्रमितरत्। ५. त० भाष्यसिद्ध० वृत्ति, पृ० ३२, तदेवं प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पा. स्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शन मिति ।
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy