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अध्याय २
" है " जो पढ़ार्थ रूप से अवस्थित है उसका उस रूप होना " एवं अर्थ से तात्पर्य है जो निश्चय किया जाता है । इस प्रकार जो पदार्थ जिस रूप से अवस्थित है उसका उसी रूप से निश्चय होना तत्त्वार्थ है । यहाँ शंकाकार शंका करते हैं यदि तत्त्वार्थश्रद्धानम् के स्थान पर यहाँ अर्थश्रद्धा ही किया जाय तो क्या यह पर्याप्त नहीं ? उसका समाधान करते हुए कहा है कि - इस से अर्थ शब्द के धन, प्रयोजन, अभिधेय आदि जितने भी अर्थ है उन सबके ग्रहण का प्रसंग आता है जो युक्त नहीं । अतः अर्थश्रद्धानम् ” केवल इतना ही नहीं कहा है । पुनः शंका करते हैं कि तब तत्त्वश्रद्धानम् " इतना ही ग्रहण करना चाहिये ? तो समाधान करते हुए कहा कि इस प्रकार केवल भावमात्र के ग्रहण का प्रसंग प्राप्त होता है । कितने ही लोग वैशेषिक तत्त्व पद से सत्ता, द्रव्यत्व, गुणत्व, और कर्मत्व इत्यादि का ग्रहण करते हैं । अब यदि सूत्र में तत्त्वश्रद्धानम् इतना ही रहने दिया जाता है तो इससे इन सबका श्रद्धान सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है जो युक्त नहीं ।
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अथवा तत्त्व शब्द एकत्ववाची है इसलिए सूत्र में केवल तत्त्व पढ़ के रखने से “ सब एक है" इस प्रकार स्वीकार करने का प्रसंग प्राप्त होता है । अथवा यह सब दृश्य व अदृश्य जगत् पुरुषस्वरूप ही है " ऐसा किन्हीं ने माना भी है। इस तरह इस सूत्र में सम्यग्दर्शन का लक्षण केवल " तत्त्व श्रद्धानम् " रखना युक्त प्रतीत नहीं होता। साथ ही ऐसा मानने पर प्रत्यक्ष और अनुमान से विरोध आता है । अतः इन सब दोषों को दूर करने के लिए सूत्र में तत्त्व और अर्थ इन दोनों पदों का ग्रहण किया है । '
टीकाकार सिद्धसेन, विद्यानन्दी ने भी इसी का समर्थन किया है । विद्यानंदी के अनुसार- यदि सिर्फ श्रद्धान करना यह लक्षण माना जाय तो इससे मिथ्या-ज्ञानों से ग्रहण किये गये अनर्थों का श्रद्धान करना १. स० सि० पृ० ७ ।
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