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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप
वैशेषिकों के अनुसार इच्छा और द्वेष से धर्म और अधर्म की प्रवृत्ति होती है। उनसे सुख और दुःख रूप संसार । जिस पुरुष को तत्त्वज्ञान हो जाता है, उसके इच्छा द्वेष नहीं रहते, इनके न होने से धर्म और अधर्म नहीं होते, धर्म और अधर्म के न होने से नए शरीर और मन का संयोग नहीं होता, जन्म नहीं होता और संचित कर्मों का निरोध हो जाने से मोक्ष हो जाता है । जैसे प्रदीप के बुझ जाने से प्रकाश का अभाव हो जाता है उसी तरह धर्म और अधर्म रूप बंधन के हट जाने पर जन्म-मरण के चक्र रूप संसार का अभाव हो जाता है | अतः षट् पदार्थ का तत्त्वज्ञान होते ही अनागत धर्म और अधर्म की उत्पत्ति नहीं होगी, इस प्रकार संचित धर्माधर्म का उपभोग और ज्ञानाग्नि से विनाश होकर मोक्ष हो जाता है । अतः वैशेषिक मत से भी विपर्यय बन्ध का कारण है और तत्त्व ज्ञान मोक्ष का ।'
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नैयायिकों के मतानुसार - तत्त्वज्ञान से मिथ्याज्ञान की निवृत्ति होने पर क्रमशः दोष प्रवृत्ति को जन्म और दुःख की निवृत्ति होने को मोक्ष कहते हैं । दुःख, जन्म, प्रवृत्ति, दोष और मिथ्याज्ञान का कारण कार्य भाव है अर्थात् मिथ्याज्ञान का कार्य दोष, दोष का कार्य प्रवृत्ति, प्रवृत्ति का कार्य जन्म और जन्म का कार्य दुःख है । अतः कारण की निवृत्ति होने पर कार्य की निवृत्ति होना स्वाभाविक है । ये आत्यन्तिक दुःख निवृत्ति को ही मोक्ष कहते हैं ।
बौद्धों के अनुसार - अविद्या से बंध और विद्या से मोक्ष होता है । अनित्य, अनात्मक, अशुचि और दुःखरूप पदार्थों को नित्य, सात्मक, शुचि और सुखरूप मानना अविद्या है । इस अविद्या से
१. इच्छा द्वेषपूर्विका धर्माधर्म प्रवृत्ति । वैशे० ० ६-२-१४ । धर्माधर्मापेक्ष सदेहस्यात्मनो मनसा संयोगो जीवनम्,
तस्य धर्माधर्मयोरभावादभावोऽप्रादुर्भावश्च प्रत्यग्रशरीरस्यात्यन्तमभावः स मोक्ष:- रा० वा०, पृ० ११ ॥
२. दुःखजम्मप्रवृत्तिदोष मिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरामावान्निःश्रेयसाधिगमः - न्यायसू० १-१-२ ।