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अध्याय ५
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अकलंक देव ने इन दोनों ही मतों को स्वीकार करते हुए इसकी विशद चर्चा की है । स्पष्ट इस से यही होता है कि सम्यग्दर्शन के पश्चात् ही सम्यग्ज्ञान होता है । उस से पूर्व की स्थिति अज्ञान की है । सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के पश्चात् अज्ञान की निवृत्ति होकर ज्ञान में समीचीनता आ जाती है और वह तब सम्यग्ज्ञान हो जाता है । ' इसी के साथ अकलंकदेव ने कहा कि जो यह मानते हैं कि ज्ञान से ही मुक्ति हो सकती है, मोक्ष प्राप्ति के लिए सम्यग्दर्शनादि तीन को मानना वृथा है । उनके मत का खण्डन करते हुए कहा
सांख्य मतावलम्बी यह मानते हैं कि धर्म से उच्च योनि में और अधर्म से नीच योनि में जन्म होता है । प्रकृति और पुरुष में विवेकज्ञान होने से मोक्ष होता है तथा प्रकृति और पुरुष विषयक विपर्यय ज्ञान से बंध | जब तक पुरुष को मिथ्याज्ञान होता है, वह शरीर को ही आत्मा मानता है, तब तक उसे विपर्यय ज्ञानं से बंध होता है । जन उसे प्रकृति और पुरुष का भेद ज्ञान हो जाता है, वह पुरुष के सिवाय यावत् पदार्थों का प्रकृति कृत और त्रिगुणात्मक मानकर उन से विरक्त होकरं "मैं इन में नहीं हूँ”, “ये मेरे नहीं है " यह परम विवेकज्ञान जाग्रत होता है तब सम्यग्ज्ञान से मोक्ष हो 'जाता है । तात्पर्य यह है कि सांख्य विपर्यय से बंध और ज्ञान से . मोक्ष मानता है । "
यहाँ स्व-पर का विवेक यही जैन दर्शन को सम्यग्दर्शन अभिप्रेत है तथा विरति यही चारित्रका रूप ही है । सांख्य जो केवल ज्ञान से मोक्ष का कथन तो करते है किन्तु उससे दर्शन और चारित्र भी अछूते नहीं रहते है।
१. रा० वा०, पृ० १७ ।।
२. धर्मेण गमनमूर्ध्व गमनमधस्ताद् भवत्यधर्मेण ।
ज्ञानेन चापवर्ग: विपर्ययादिष्यते बन्धः ॥ सांख्यकारिका ४४ ।। तत्त्वाभ्यासान्नाऽस्मि न मे नाहमित्यपरिशेषम् ।
अविपर्याद्विशुद्धं केवलमुत्पद्यते ज्ञानम् ॥ सां० का० ६४ ॥