________________
जैन दर्शन में सम्यक्स्थ का स्वरूप दर्शन ज्ञानपूर्वक होता है तथा दूसरा ज्ञान में दर्शन शब्द की अपेक्षा कम अक्षर हैं। इस का समाधान करते हुए कहा-यह कहना युक्त नहीं कि दर्शन ज्ञानपूर्वक होता होता है, इसलिए सूत्र में ज्ञान का पहले ग्रहण करना चाहिये । दर्शन और ज्ञान एक साथ उत्पन्न होते हैं । जसे मेघपटल के दूर हो जाने पर सूर्य का प्रताप और प्रकाश व्यक्त होता है, उसी प्रकार जिस समय दर्शन मोहनीय का उपशम, क्षय और क्षयोपशम होने पर सम्यग्दर्शन होता है उसी समय उसके सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान होता है। और जो यह कहा गया है कि दर्शन की अपेक्षा ज्ञान में कम अक्षर है अतः उसे सूत्र में प्रथम ग्रहण करना चाहिये सो यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा नियम है कि अल्प अक्षर होने पर भी पूज्य शब्द को प्रथम स्थान देना चाहिये अतः ज्ञान से पूर्व दर्शन .प्रयुक्त किया गया है।' सम्य- . ग्दर्शन पूज्य क्यों है ? क्योंकि सम्यग्दर्शन से ज्ञान में समीचीनता
आती है। ... भाष्य में और स्पष्ट करते हुए कहा कि-"एषां च पूर्वस्य लाभे भजनीयमुत्तरम् । उत्तरलाभे तु नियतः पूर्वलाभः"२ पूर्व अर्थात् पूर्व का लाभ होने पर ही उत्तरोत्तर लाभ हो सकता है। उत्तर की प्राप्ति में पूर्व का लाभ नियत है । टीका में इसे स्पष्ट करते हुए कहा-सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होने पर सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र हो भी सकता है
और न भी हो किन्तु सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र की प्राप्ति हो जाने पर सम्यग्दर्शन निश्चित रूप से हो चुका होता है। १. स० सि०, पृ० ५ ॥
ज्ञान प्रहणमादौ न्याय्यं, दर्शनस्य तत्पूर्वकत्वात् अल्पात्तरत्वाञ्च । नेतद्युक्तं, युगपदुत्पत्ते । Xxxअल्पाच्तरादभ्येहितं पूर्व निपतति । कथमभ्यहिंतत्वम् ? शानस्य सम्यग्व्यपदेश हेतु त्वात् । २. तस्व० भा० सिद्ध० वृ०, पृ० २६ ॥ ३.सिद्ध० वृ० पृ० २८-२९ ॥